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१६.७९] १६. पवणंजयअंजणासुन्दरीभोगविहाणाहियारो
१६५ भणिओ य भो ! तुम को?. केण व कज्जेण आगओ एत्थं । तो पणमिऊण साहइ, मित्तो हंपवणवेगस्स ॥ ६५ ।। सो तुज्झ 'पिओ सुन्दरि !, इहागओ तेण पेसिओ तुरियं । नामेण पहसिओ हं, मा सामिणि ! संसयं कुणसु ॥ ६६ ॥ सोऊण सुमिणसरिसं, बाला पवणञ्जयस्स आगमणं । भणइ य किं हससि तुमं?, पहसिय ! हसिया कयन्तेणं ॥ ६७ ॥ अहवा को तुह दोसो ?, दोसो च्चिय मज्झ पुबकम्माणं । जा हं पियपरिभूया, परिभूया सबलोएणं ॥ ६८ ॥ भणिया य पहसिएणं, सामिणि ! मा एव दुक्खिया होहि । सो तुज्झ हिययइट्ठो, एत्थं चिय आगओभवणे ॥ ६९ ॥ कच्छन्तरट्टिओ सो, वसन्तमालाएँ कयपणामाए । पवणंजओ कुमारो, पवेसिओ वासभवणम्मि ।। ७० ॥ अब्भुट्ठिया य सहसा, दइयं दट ठूण अञ्जणा बाला । ओणमियउत्तमङ्गा, तस्स य चलणञ्जली कुणइ ॥ ७१ ॥ पवणञ्जओवविट्ठो, कुसुमपडोच्छइयरयणपल्लङ्के । हरिसवसुन्भिन्नङ्गी, तस्स ठिया अञ्जणा पासे || ७२ ॥ कच्छन्तरम्मि बीए, वसन्तमाला समं पहसिएणं । अच्छइ विणोयमुहला, कहासु विविहासु जंपन्ती ॥ ७३ ॥ पवनञ्जयाञ्जनयोः मोलनम् - तो भणइ पवणवेगो, जं सि तुम सासिया अकज्जेणं । तं मे खमाहि सुन्दरि !, अवराहसहस्ससंघायं ॥ ७४ ॥ भणइ य महिन्दतणया, नाह! तुम नन्थि कोइ अवराहो। सुमरिय मणोरहफलं, संपइ नेहं वहेज्जासु ॥ ७५ ॥ तो भणइ पवणवेगो, सुन्दरि ! पम्हुससु सबअवराहे । होहि सुपसन्नहियया, एस पणामो कओ तुझं ॥ ७६ ॥ आलिङ्गिया सनेह, कुवलयदलसरिसकोमलसरीरा । वयणं पियस्स अणिमिस-नयणेहि व पियइ अणुरायं ॥ ७७ ।। घणनेहनिब्भराणं, दोण्ह वि अणुरायलद्धपसराणं । आवडियं चिय सुरयं, अणेगचडुकम्मयिणिओगं ॥ ७८ ॥
आलिङ्गण-परिचुम्बण-रइउच्छाहणगुणेहि सुसमिद्धं । निववियविरहदुक्खं, मणतुट्टियरञ्जियनहिच्छं ॥ ७९ ॥ पवनवेगका मित्र हूँ । (६५) हे सुन्दरो ! तुम्हारा वह प्रिय यहाँ आया है। उसने तत्काल ही यहाँ मुझे भेजा है। मेरा नाम प्रहसित है। हे स्वामिनी! तुम सन्देह मत करो। (६६) स्वप्नके समान पवनंजयके आगमनकी बात सुनकर अंजनाने कहा कि, हे प्रहसित! तुम क्यों मजाक कर रहे हो ? मैं कृतान्त ( यम, मृत्यु ) द्वारा उपहसनीय हुई हूँ (६७) अथवा तुम्हारा क्या दोष है ? मेरे पूर्वकर्मोका ही दोष है कि मैं प्रियसे तिरस्कृत हुई हूँ, सब लोगोंसे अपमानित हुई हूँ। (६८) इस पर प्रहसितने कहा कि, हे स्वामिनी ! तुम इस तरह दुःखी मत हो। तुम्हारा वह हृदयस्थ इसी भवनमें आया हुआ है। (६९) वसन्तमालाने दूसरे कक्षमें स्थित पवनंजयकुमारको प्रणाम करके शयनगृहमें दाखिल किया। (७०) प्रियको देखकर अंजनाकुमारी सहसा खड़ी हो गई और सिर झुकाकर उसके चरणों में प्रणाम किया। (७१) पवनंजय पुष्पोंकी चादरसे आच्छादित रत्नमय पलंगके ऊपर बैठा। हर्षवश रोमांचित शरीरवाली अंजना उसके पास बैठी । (७२) विनोदपूर्ण बातें और विविध प्रकारकी कथाएँ कहनेवाली वसन्तमाला प्रहसितके साथ दूसरे कक्षमें ठहरी । (७३)
तब पवनवेगने कहा कि, हे सुन्दरी! अकार्यकारी मैंने जो तुम्हें दुःखित किया है उस मेरे हजारों अपराधके समूहको क्षमा करो। (७४) इसपर महेन्द्रतनया अंजनासुन्दरीने कहा कि, हे नाथ! इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। मनोरथके फलको याद करके अब आप स्नेह बहावें । (७५) तब पवनंजयने कहा कि, हे सुन्दरी ! सब अपराधोंको भूल जाओ और सुप्रसन्न हृदयवाली हो। मैंने तुम्हें यह प्रणाम किया। (७६) कमलदलके समान कोमल शरीरवाली अंजनाका आलिंगन किया। अनिमेष नयनोंसे वह प्रियके वदनका अनुरागपूर्वक पान करने लगी । (७७) प्रगाढ़ स्नेहसे भरे हुए तथा अनुरागके कारण प्रसारप्राप्त-खिले हुए उन दोनोंमें अनेक प्रकारके प्रिय कोंका जिसमें विनियोग किया जाता है ऐसा सुरतकर्म हुआ। (७३) आलिंगन, चुम्बन, रति एवं उत्साह गुणोंसे अतिसमृद्ध, विरहका दुःख जिसमें उपशान्त हो गया है तथा
१. पिययमो इह समागओ-प्रत्या।
के पास बैठी। (७२) वापस आच्छादित रत्नमय पलंगके उपायुकाकर उसके चरणोंमें प्रणाम
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