________________
१७४
पउमचरियं
[१७. ११० सुपुरिस! सुभो मुहुत्तो, उदओ मीणस्स आसि तबलं । सबै गहाऽणुकूला, विद्धिट्ठाणेसु वदृन्ति ॥ ११० ॥ एवं महानिमित्तं, भणियं बल-भोग-रज्ज-सामिद्धी । भोत्तण एस बालो, सिद्धिसुहं चेव पाविहिई॥ १११ ।। नक्खत्तपाढय पि य, संपूएऊण तत्थ पडिसूरो । तो भणइ भाइणेज्जी, हणुरुहनयरं पगच्छामो ।। ११२ ॥ तो निग्गया गुहाओ, ठाणनिवासिं सुरं खमावेउं । वच्चइ नहङ्गणेणं, वरकणयविमाणमारूढा ॥ ११३ ॥ उच्छङ्गवट्टियतणू, बालो दट्टण खिङ्खिणोजालं । मीणो व समुच्छलिउं, पडिओ गिरिणो सिलावट्टे ॥ ११४ ॥ दट्टण सुयं पडियं, रोयन्ती भणइ अञ्जणा कलुणं । दाऊण निही मज्झं, अच्छीणि पुणो अवहियाणि ॥ ११५ ॥ तो सा महिन्दतणया, समयं पडिसुज्जएण अबइण्णा । हाहाकारमुहरवा, पेच्छइ य सिलायले बालं ॥ ११६ ॥ निरुवहयङ्गोवङ्गो, गहिओ बालाएँ परमतुट्टाए । पडिसुज्जएण वि तओ. पसंसिओ हरिसियमणेणं ॥ ११७ ॥ जाणविमाणारूढा, समयं पुत्तेण अञ्जणा तुरियं । बहुतूरमङ्गलेहि, पवेसिया हणुरुहं नयरं ॥ ११८ ॥ जम्मूसवो महन्तो, तस्स को खेयरेहि तुट्टेहिं । देवेहि देवलोए, नज्जइ इन्दे समुप्पन्ने ॥ ११९ ॥ बालत्तणम्मि जेणं. सेलो आचुण्णिओ य पडिएणं । तेणं चिय सिरिसेलो, नाम पडिसुज्जएण कयं ॥ १२० ॥ हणुरुहनयरम्मि जहा, सक्कारो पाविओ अइमहन्तो । हणुओ त्ति तेण नाम, बीयं ठवियं गुरुयणेणं ॥ १२१ ।। सबजणाणन्दयरो, तम्मि पुरे सुरकुमारसमरूवो । अच्छइ परिकीलन्तो, सुहेण जणणीऍ हियइट्ठो ॥ १२२ ॥
एव नरा सुणिऊण महन्तं, पुवकयं बहुदुक्खविवायं । संजमसुट्ठियउज्जुयभावा, होह सया विमले जिणधम्मे ॥ १२३ ॥
॥ इय पउमचरिए हणुयसंभवविहाणो नाम सत्तरसमो उद्देसओ समत्तो।।
सब अनुकूल ग्रह वृद्धिस्थानमें रहे हुए हैं । (११०) यह महानिमित्त कहता है कि बल, भोग, राज्य एवं समृद्धिका उपभोग करके यह बालक मोक्षसुख प्राप्त करेगा । (१११) वहाँ प्रतिसूर्यने नक्षत्रपाठक (ज्योतिषी) का सम्मान करके अपनी भानजीसे कहा कि हम हनुरुह नगरको जावें । (११२) बादमें उस स्थानमें रहनेवाले देवसे क्षमायाचना करके वह गुफामेंसे बाहर निकली
और सोनेके बने हुए उत्तम विमानमें आरूढ़ होकर चली । (११३) गोदमें जिसका शरीर धारण किया हुआ है ऐसा वह बालक किंकिणीके समूहको देखकर मछलोकी भाँति उछला और पहाड़की शिलापर जा गिरा । (११४) पुत्र नीचे गिरा है ऐसा देखकर अंजना करुण स्वरमें रोकर कहने लगी कि मुझे खजाना देकर फिर आँखें छीन ली है ! (११५) तब मुखसे हाहाकार ध्वनि करती हुई वह महेन्द्रतनया अंजना प्रतिसूर्य के साथ नीचे उतरी और शिलातल पर बालकको देखा। (११६) अक्षत अंगोपांगवाले उस बालकको अंजनाने आनन्दमें विभोर होकर उठा लिया। हर्षित मनवाले प्रतिसूर्यने भी तब उसकी प्रशंसा की । (११७) पुत्रके साथ अंजना शीघ्र ही विमानके वाहन पर आरूढ़ हुई और नानाविध मंगल वाद्योंके साथ हनुरुहनगरमें उसका प्रवेश कराया गया। (११८) इन्द्र के उत्पन्न होने पर देवलोकमें देवों द्वारा जैसा जन्मोत्सव मनाया जाता है वैसा ही आनन्दमें आये हुए खेचरोंने उसका जन्मोत्सव मनाया। (११९) बचपनमें चूँकि गिरनेसे पहाड़ चूर्ण-चूर्ण कर दिया था, अतएव प्रतिसूर्यने उसका नाम श्रीशैल रखा । (१२०) और चूँकि हनुरुहनगरमें बहुत बड़ा सत्कार पाया था, इसलिए गुरुजनोंने उसका दूसरा नाम हनुमान रखा । (१२१) सब लोगोंको आनन्द देनेवाला, देवकुमारके समान रूपवाला और माताके मनको प्रिय वह उस नगरमें कोड़ा करता हुआ सुखपूर्वक रहने लगा। (१२२)
इस प्रकार बड़े भारी और अत्यन्त दुःखदायी फल देनेवाले पूर्वकृत कर्मके बारेमें सुनकर मनुष्य विमल जिनधर्म में सर्वदा संयममें सुस्थित तथा ऋजुभावसे युक्त हों । (१२३)
। पद्मचरितमें हनुमानजन्मविधान नामक सत्रहवाँ उद्देश समाप्त हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org