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________________ १५८ पउमचरियं [१५. ६२पीणुन्नयथणजुयला, तणुमज्झा बियड-पीवरनियम्बा। रत्तासोयसमुज्जल-कर-चरणालत्तयच्छाया ॥ ६२ ॥ रूवेण जोबणेण य, जंपिय-हसिएण गइ-सहावेण । देवाण वि हरइ मणं, किं पुण एसा मणुस्साणं? ॥ ६३ ॥ तं दटूण वरतणू , पवणगई विम्हिओ विचिन्तेइ । किं होज पयावइणा, रूवपडाया कया एसा ? ॥ ६४ ॥ अञ्जनासख्युल्लापाःएयन्तरम्मि सहिया, वसन्ततिलय ति नामओ भणइ । धन्ना सि तुम बाले !, जा दिन्ना पवणवेगस्स ॥ ६५ ॥ एयस्स पवरकित्ती, गेहं गेहेण भमइ जियलोए । अणिवारियगइपसरा, पट्टमहिल ब निस्सङ्का ॥६६॥ भणिया वसन्ततिलया, सहियाए तत्थ मीसकेसीए । पुरिसाण गुणविसेसे, उत्तम-अहमे न लक्खेसि ॥ ६७ ॥ विजप्पम पमोत्त, चरिमसरीरं गुणायरं धीरं । पवणंजयं पसंससि, वसन्ततिलए ! परममूढे! ॥ ६८ ॥ भणिया य मिस्सकेसी, वसन्ततिलयाएँ सो हु अप्पाऊ । तेण विहूणा बाला, होही पब्भट्टलायण्णा ॥ ६९ ॥ अह भणइ मीसकेसी, वरं खु विजुप्पभेण सह पेम्मं । एक्कं पि होउ दियह, न दीहकालं कुपुरिसेणं ॥ ७० ॥ सोऊण वयणमेयं, पवणगई रोसपसरियामरिसो । जुबईण मारणट्ठा, आयगृह असिवरं सहसा ॥ ७१ ॥ पहसिय ! बालाएँ इमं, वयणं अणुयन्नियं निरुत्तेणं । जेणेव जंपमाणी, न निसिद्धा अत्तणो सहिया ॥ ७२ ॥ एयाण असिवरेणं, सिराइँ छिन्दामि दोण्ह वि जणीणं । हिययस्स वल्लइयरो, वरेउ विज्जाहो इहई ॥ ७३ ॥ दट्टण समुम्गिणं, खग्गं जुवईण मारणट्टाए । वारेइ पवणवेगं, मित्तो महुरेहि वयणेहिं ॥ ७४ ॥ वरसुहडनीयनासं, खग्गं गयकुम्भदारणसमत्थं । बहुदोसाण वि धीरा, महिलाण इमं न वाहिन्ति ॥ ७५ ॥ उत्तमकुलसंभूओ. उत्तमचरिएहि उत्तमो सि तुमं । मा कुणसु पणइणिवह, तम्हा कोवं परिचयसु ।। ७६ ॥ विशाल एवं मोटे उसके नितम्ब थे तथा अशोकके लाल पुष्पोंके सदृश कान्तिवाले उसके हाथ-पैर आलतेसे रंगे हुए थे। (६२) वह अपने रूप, यौवन, वार्तालाप, हास्य एव गतिके सौन्दर्यसे देवोंका मन हरती थी, तो फिर मनुष्योंका तो कहना ही क्या? (६३) उस सुन्दरीको देखकर विस्मित पवनगति सोचने लगा कि प्रजापतिने क्या यह रूपको पताका बनाई है ? (६४) इस बीच वसन्ततिलका नामकी सखीने कहा कि, हे बाले ! तू धन्य है, जो पवनवेगको दी गई है। (६५) जिसकी गतिका विस्तार रोका नहीं जा सकता अर्थात् सर्वत्र गति करनेवाली और निःशंक दुष्ट महिलाकी भाँति इसकी उत्तम कीर्ति जीवलोकमें घर-घर परिभ्रमण करती है। (६६) वहाँ उपस्थित दूसरी सखी मिश्रकेशीने वसन्ततिलकासे कहा कि तू पुरुषोंके उत्तम, अधम जैसे गुणविशेष नहीं जानती (६७) हे अत्यन्त मूढ़ वसन्ततिलके ! गुणके निधान, धीर और चरमशरीरी विद्युत्प्रभको छोड़कर तू पवनंजयकी प्रशंसा करती है ? (६८) इस पर वसन्ततिलकाने मिश्रकेशीसे कहा कि वह अल्पायु है। उसके बिना यह बाला लावण्यहीन हो जायगी । (६९) तब मिश्रकेशीने कहा कि विद्युत्मभके साथ एक दिन भी प्रेम हो तो वह अच्छा है, किन्तु कुपुरुषके साथ दीर्घकाल तक हो तो वह अच्छा नहीं है। (७०) यह वचन सुनकर गुस्से में भरे हुए पवनगतिने उस युवतीको मारनेके लिए एकदम तलवार खेंची। (७१) हँसकर और उत्तर न देकर इस कन्या (अंजनासुन्दरी) ने इस कथनका अनुमोदन किया है, क्योंकि इस तरह बोलती हुई अपनी सखीको उसने रोका नहीं। (७२) इन दोनों स्त्रियोंका सिर मैं तलवारसे काटता हूँ, अब अपने प्रेमी विद्युत्प्रभके साथ भले ही शादी करे। (७३) युवतियोंके वधके लिए ऊपर उठाई हुई तलवारको देखकर मित्र मीठे वचनोंसे उसे रोकने लगा। (४) बड़े बड़े सभटोंके जीवनका नाश करनेवाली तथा हाथियोंके गण्डस्थलका दान करनेमें समर्थ यह तलवार बहुत अपराध करनेपर भी महिलाओंके ऊपर नहीं चलाई जाती। (७५) तुम उत्तम कुलमें पैदा हुए हो और उत्तम आचरणके कारण तुम उत्तम हो. अतः प्रणयिनीका वध मत करो और क्रोधका त्याग करो। (७६) इस प्रकार प्रहसित द्वारा मधुर वचमसे शान्त किया गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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