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१५.६१ ]
१५. अंजणासुन्दरीवीवाहविहाणाहियारो
४८ ॥
पञ्चमवेगे डज्झइ, छट्टे भत्तं विसोवमं होइ । सत्तमयम्मि पलवइ, अट्टमवेगम्मि उग्गाइ ॥ ४७ ॥ नवमे मुच्छाविहलो, दसमे पुण मरइ चेव अकयत्थो । एवं विहा उ वेगा, कहिया मयणाहिदट्ठस्स एवं कामभुयङ्गम- दट्टो पवणञ्जओ विगयहासो । विरहविसघायणट्टे, तं कन्नाओसहिं महइ ॥ ४९ ॥ वरभवणगओ वि धिईं, न लहइ सयणा - SSसणे महरिहम्मि । उज्जाण - काणण-वणे, पउमसरे नेव रमणिज्जे ॥ ५० ॥ चिन्तेइ तग्गयमणो, कइया तं वरतणुं नियच्छे हं । निययङ्कम्मि निविट्टं, फुसमाणो अङ्गमङ्गाई ? ॥ ५१ ॥ निज्झाइऊण बहुयं, छायापुरिसो व निययपासत्थो । पवणंजएण मित्तो, भणिओ यि पहसिओ नाम ॥ ५२ ॥ अन्नस्स कस्स व जए, मित्तं मोत्तूण कारणं गरुयं । समपिज्जइ सुह-दुक्खं ?, जं भण्णसि तं निसामेहि ॥ ५३ ॥ जइ तं महिन्दतणयं, अज्ज न पेच्छामि तत्थ गन्तृणं । तो विगयजीविओ हं, होहामि न एत्थ संदेहो ॥ ५४ ॥ एक चिय दियहं हसिय! न सहामि दरिसणविओगं । दिवसाणि तिष्णि सो हं, कह य गमिस्सामि अकयत्थो ? || ५५ ॥ तं चि कुणसु उवायं, जेण अहं अज्ज तीऍ मुहयन्दं । पेच्छामि तत्थ गन्तुं, पहसिय! मा णे चिरावेहि ॥ ५६ ॥ भणिओ य पहसिएणं, सामिय ! मा एव कायरो होह । दावेमि अज्ज तुज्झं, अञ्जणवरसुन्दरि कन्नं ॥ नाव च्चिय उल्लावो, वट्टइ दोण्हं पि ताण ऐयन्ते । ताव समोसरियकरो, दिवसयरो चेव अत्थाओ ॥
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५८ ॥
पवनञ्जयेन श्रञ्जनाया दर्शनं तद्विरागश्च -
अन्धारिए समत्थे, मित्तो पवणंजएण आणत्तो । उट्टे हि ठाहि पुरओ, वच्चामो जत्थ सा कन्ना ॥ ५९ ॥ उप्पया गयणयले दोण्णि वि वच्चन्ति पवणपरिहत्था । वढन्तघणसिणेहा, संपत्ता अञ्जणाभवणं ॥ ६० ॥ सत्तमतलं पविट्टा, उवविट्टा आसणेसु दिबेसु । पेच्छन्ति तं वरतणुं, कोमुइससिसयलमुहसोहं ॥ ६१ ॥
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गाता है, नवेंमें मूर्च्छासे विह्वल हो जाता है और दसवें में तो अकृतार्थ वह मर जाता है । इस प्रकारके वेग मदनरूपी सर्पसे काटे हुए कहे गये हैं । (४६-४८) इस तरह कामरूपी सर्पसे काटे गये पवनंजयका हास्य विलुप्त हो गया । विरहरूपी विषके नाशके लिए वह उस कन्यारूपी औषधकी आकांक्षा करने लगा । (४९) उत्तम राजमहलमें रहने पर भी अत्यन्त मूल्यवान् शयनासनमें वह शान्ति प्राप्त नहीं करता था । बाग़-बगीचों में तथा पद्मसरोवरोंमें उसका मन नहीं लगता था । (५०) उस कन्या में ही जिसका मन लगा है ऐसा वह सोचता था कि कब मैं उस सुन्दरीको देखूँगा और अपनी गोद में बैठी हुई उसके अंगोंसे मेरे अंगोंका स्पर्श करूँगा । (५१) बहुत सोचविचार करके छायापुरुषकी भाँति अपने पासमें रहनेवाले प्रहसित नामके मित्र से पवनंजयने कहा कि मित्रको छोड़कर दूसरे किसको मैं दुःखका कारण कहूँ । मित्रको ही सुख-दुःख समर्पित किया जाता है, अतः मैं तुझे जो कहता हूँ वह तू सुन । (५२-५३ ) यदि महेन्द्रकी उस कन्या का आज ही वहाँ जाकर दर्शन नहीं करूँगा तो मैं मर जाऊँगा, इसमें सन्देह नहीं है । (५४) हे प्रहसित ! यदि मैं एक ही दिन दर्शनका वियोग सह नहीं सकता तो फिर अकृतार्थ मैं तीन दिन कैसे बिताऊँगा ? (५५) इसलिए, हे प्रहसित ! वैसा उपाय कर जिससे मैं आज वहाँ जाकर उसके मुखचन्द्रको देख सकूँ । तू देर मत लगा (५६) प्रहसितने कहा कि, हे स्वामी ! आप इस तरह कायर न बनें। आज आपको अंजनासुन्दरी कन्याके दर्शन कराता हूँ। (५७) इस प्रकार जब उन दोनोंके बीच एकान्तमें वार्तालाप हो रहा था कि किरणोंको समेटता हुआ सूर्य अस्त हो गया । (५८)
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अन्धकार फैल जाने पर पवनंजयने मित्रसे कहा कि उठ और आगे हो । जहाँ वह कन्या है वहाँ हम जाएँगे । (५९) वे दोनों आकाश में उड़े, पवनके समान दक्ष वे चले और अत्यन्त बढ़े हुए स्नेहवाले वे दोनों अंजनासुन्दरोके महलके पास आ पहुँचे । (६०) महलकी सातवीं मंजिल में प्रवेश करके और दिव्य आसन पर बैठकर उन्होंने पूर्णिमाके चन्द्रकी भाँति सम्पूर्ण मुख- शोभावाली उस सुन्दरीको देखा । (६१) उसके दोनों स्तन मोटे और ऊँचे थे, उसका कटिभाग पतला था,
१. एकान्ते । २.
अस्तमायातः अस्तगत इत्यर्थः ।
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