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________________ १५६ पउमचरियं [१५. ३३. पल्हाओ वि नरवई, भत्तीरागेण चोइओ सन्तो । गन्तूण पययमणसो, संथुणइ जिणालए सधे ॥ ३३ ॥ अञ्जनायाः पवनञ्जयेन सह सम्बन्धःअह सो समत्तनियमो, दिट्ठो अब्भुट्टिओ महिन्देणं । कयविणय-पीइपमुहा, दो वि जणा तत्थ उवविट्ठा ॥ ३४ ॥ पल्हाएण महिन्दो, तत्थ सरीराइ पुच्छिओ कुसलं । भणिओ य महिन्देणं, कत्तो कुसलं अपुण्णस्स ? ॥ ३५ ॥ दुहिया पढमवयस्था, अस्थि महं रूव-जोवण-गुणोहा । तीए य वरं सरिसं, न लभामि य दुक्खिओ अयं ॥ ३६ ॥ पुणरवि महिन्दराया, पल्हार्य भणइ महुरवायाए । मन्तीहि मज्झ सिटुं, तुज्झ सुओ अन्थि पवणगई ॥ ३७॥ तस्स कुमारी सुपुरिस ! दिन्ना य मए करेह कल्लाणं । परिचिन्तिया य बहुसो, पूरेहि मणोरहे सखे ॥ ३८ ॥ अह भणइ तत्थ वयणं, पल्हाओ सच्चमेव एवं तु । गाढऽम्हि परिग्गहिओ, महिन्द ! तुज्झाणुराएणं ॥ ३९ ॥ दोण्हं पि अणुमएणं, माणसवरसरतडे निओगेणं । गन्तूण य कायबो, वीवाहो तइयदियहम्मि ॥ ४० ॥ एवं कमेण दोणि वि, निययट्टाणा तत्थ गन्तूणं । हय-गय-परियणसहिया, संपत्ता माणसं तुरिया ॥ ४१ ॥ उभयबलसन्निवेसा, विजाहर-सयण-परियणापुण्णा । सोहन्ति तत्थ वियडा, अहिटिया रिद्धिसंपन्ना ॥ ४२ ॥ दश कामवेगाःदिवसेसु तीसु होही, वीवाहो एव गुरुजणाइटें । कन्नाएँ दरिसणमणो, न सहइ पवणंजओ गमिउं ॥ ४३ ॥ मयणोरगावरद्धो, उदरट्ठियवेयणापरिग्गहिओ । दोसं गुणं न पेच्छइ, न य जाणइ जाणियचं ति ॥ ४४ ॥ सत्त य हवन्ति वेगा, भुयङ्गदट्ठस्स गारुडे भणिया । दस य पुणो सविसेसा, हवन्ति मयणाहिदट्ठस्स ॥ ४५ ॥ पढमम्मि हवइ चिन्ता, वेगे बीयम्मि इच्छए दटुं। तइए दीहुस्सासो, हवइ चउत्थम्मि जरगहिओ ॥ ४६ ॥ जिनालयों में स्तुति करने लगा। (३३) पूजा आदिका नियम जिसका पूर्ण हुआ है ऐसे उस प्रह्लादको देखकर महेन्द्र सम्मान करनेके लिए खड़ा हुआ। विनय एवं प्रेम आदि जताकर वे दोनों वहाँ बैठे । (३४) उस समय प्रह्लादने महेन्द्रसे शरीर श्रादिकी कुशल पूछी। महेन्द्रने कहा कि अपुण्यशालीके लिए कुशल कहाँसे ? (३५) प्रथय वयमें आई हुई तथा रूप, यौवन एवं गुणोंसे युक्त मेरी एक लड़की है। उनके योग्य वर नहीं मिल रहा। इससे मैं दुःखी हूँ। (३६) फिर महेन्द्र राजाने मीठे शब्दोंमें प्रहादसे कहा कि मंत्रियोंने मुझे कहा था कि आपका पवनगति नामका पुत्र है। (३७) हे सुपुरुष ! मैंने उसे कन्या दे दी । उनका विवाहमंगल करो। मैंने बहुत विचार किया है। अब सब मनोरथ पूर्ण करो। (३८) तब प्रसादने कहा कि यह सत्य है। हे महेन्द्र! तुम्हारे अनुरागसे मैं अत्यन्त अनुगृहीत हूँ। (३९) दोनोंका विवाह मानस सरोवरके तट पर आजसे तीसरे दिन पर करना चाहिए ऐसा निश्चय उन्होंने मान्य रखा । (४०) इस प्रकार निश्चय करके वे अपने-अपने स्थान पर गये और घोड़े, हाथी एवं परिजनोंके साथ वे जल्दी ही मानससरोवरके पास आ पहुँचे । (४१) विद्याधर, स्वजन एवं परिजनसे पूर्ण तथा विशाल, प्रतिष्ठित और ऋद्धिसम्पन्न दोनों सेनाओंकी छावनियाँ थीं । (४२) तीन दिनमें विवाह होगा ऐसा गुरुजनोंने कहा, किन्तु कन्याके दर्शनके अभिलाषी पवनंजयके लिए वे तीन दिन बिताने असह्य हो गये। (४३) मदनरूपी साँपसे डंसा हुआ और इसीलिए उदरमें रही हुई वेदनासे व्याप्त वह न तो गुण या दोष ही देख सकता था और न जानने योग्य ही जान सकता था। (४४) साँपसे काटे हुएके सात वेग होते हैं ऐसा सर्पशास्त्र में कहा गया है, परन्तु मदनरूपी सर्पके काटे हुएके तो और भी अधिक-दस होते हैं। (४५) प्रथम वेगमें चिन्ता होती है, दूसरेमें देखनेको चाह होती है, तीसरेमें दीर्घ उछास निकलते हैं, चौथेमें ज्वरसे प्रस्त होता है, पाँचवें वेगमें जलता है, छठेमें भोजन विष जैसा लगता है, सातवेंमें प्रलाप करता है, आठवें वेगमें ऊँचेसे Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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