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१५. अंजणासुन्दरीवीवाह विहाणाहियारो
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महुरक्खरेहि एवं, उवसमिओ पहसिएण पवणगई । निग्गन्तूण घराओ, निययावासं समल्लीणो ॥ ७७ ॥ सम्म सुहसिणो, महिलावेरग्गमुवगओ भणइ । मा वीसम्भह निययं, विलयाणं अन्नहिययाणं ॥ ७८ ॥ मुक्खं चेव कुमित्तं, सत्तु भिच्चत्तणं समल्लीणं । महिला य परायत्ता, लद्धूण कओ सुहं होइ ? || ७९ ॥ एवं कमेण रयणी, वोलीणा आहयं विबुहतूरं । बन्दिनणेण सहरिसं पाहाउयमङ्गलं घुट्टं ॥ ८० ॥ पडिबुद्धेण य भणिओ, मित्तो पवणंजएण तूरन्तो । दावेहि गमणसङ्कं निययपुरं जेण वच्चामो ॥ ८१ ॥ दिन्नो य गमणसङ्खो, मुहमारुयचवल - तुङ्गसद्दालो । सोऊण तं समत्थं, पडिबुद्धं साहणं तुरियं ॥ तावयि दिवसयरो, उदिओ मिउकिरणमण्डलाडोवो । विहसन्तो वरकमले मउलावेन्तो उ कुमुयाईं ॥ -ग-रहपरिहत्थो, चलिओ पवणंजओ सपुरहुत्तो । ऊसियसियायवत्तो, धयवडधुवन्तकयसोहो ॥ सोऊण तस्स गमणं, बाला चिन्तेइ अकयपुण्णा हं । अन्नावराहनणिए, चयइ ममं जेण हियइट्टो ॥ नू मे अन्नभवे, पावं अइदारुणं समणुचिण्णं । दाऊण य अत्थनिही, नयणविणासो कओ पच्छा ॥ या अन्नाणि य, नाव य सा अञ्जणा विचिन्तेइ । ताव अणुमग्गलग्गा, पवणस्स महिन्द - पल्हाया || तुरिय-चवलेहि गन्तुं दिट्टो पवणंजओ समालत्तो । भणिओ य किं अकज्जे, गमणारम्भो तुमे रइओ ? पहायनरवईणं, भणिओ मा पुत्त ! जाहि अकयत्थो । किं वा अकज्जरुट्टो, लोए दावेहि लहुयत्तं ? ॥ जं होइ गरहणिज्जं, उवहासं जं च नरयगइगमणं । उत्तिमपुरिसेण जए, तं चिय कम्मं न कायां ॥ ९० ॥ सुणिऊण वयणमेयं, पवणगई तो मणेण चिन्तेइ । एयं अलङ्घणिज्जं, कायबं गुरुजणाइहं ॥ ९१ ॥ अहवा पाणिग्गहणं, काऊणं तं इहं समुज्झे ह । जेण महं अन्नस्स य, न होइ इट्टा निययकालं ॥ ९२ ॥ पवनञ्जयेन अञ्जनायाः परिणयनम् -
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पहाय महिन्देहिं, अणेय उवएससयसहस्साइं । दाऊण कुमारवरो, नियत्तिओ बुद्धिमन्तेहिं ॥ ९३ ॥ पवनगति घर से निकलकर अपने आवास में आया । (७७) शयनमें आरामसे बैठा हुआ तथा स्त्री पर वैररूपी अग्निसे युक्त वह कहने लगा कि दूसरे में जिनका मन लगा हो ऐसी स्त्रियोंका कभी विश्वास मत करो । ( ७८) मूर्ख कुमित्र, नौकर रूपसे रहे हुए शत्रु तथा दूसरे में आसक्त स्त्री- इन्हें पाकर कौन सुखी हो सकता है ? (७९) इस प्रकार क्रमशः रात व्यतीत हुई । जगानेके वाद्य बजने लगे । बन्दिजनोंने आनन्दके साथ प्रभातकालीन मंगलगीत गाये । (८०) जगनेपर पवनंजयने मित्रसे कहा कि फ़ौरन ही प्रयाणका शंख बजाओ, जिससे अपने नगरकी ओर हम प्रयाण करें। (८१) मुँहकी हवा से खूब ऊँची आवाज करनेवाला जानेका शंख बजाया गया। उसे सुनकर समस्त सेना शीघ्र ही जग गई । (८२) उसी समय उत्तम कमलोंको विकसित करनेवाला तथा मृदु किरणोंके मण्डलले अलंकृत सूर्य उदित हुआ । (८३) घोड़े, हाथी और रथसे घिरा हुआ, सफेद छत्रधारी तथा ध्वजाओंके पटके हिलनेसे शोभित ऐसा वह पवनंजय अपने नगरकी ओर चला । (४) उसके गमनके बारे में सुनकर वह बाला (अंजनासुन्दरी ) सोचने लगी कि मैने पुण्य नहीं किया है, क्योंकि दूसरे के अपराधपर हृदयेश्वरने मुझे छोड़ दिया है । (८५) अवश्य ही पूर्वभवमें मैंने अति भयंकर पाप बाँधा है । अर्थनिधि देकर बादमें उसकी आँखें फोड़ी होंगी। (८६) ऐसे तथा दूसरे विचार जब वह कर रही थी तब पवनंजयके मार्गका अनुगमन करनेवाले महेन्द्र और प्रह्लाद भी आ पहुँचे । (८७) जल्दी जल्दी जाते हुए पवनंजयको देखकर उन्होंने पूछा कि असमयमें जानेका आरम्भ तुमने क्यों किया है ? (प) प्रह्लाद राजाने कहा कि, हे पुत्र ! कार्य पूर्ण किये बिना तुम मत जाओ, अथवा कार्यसे रुष्ट होकर तुम मुझे लघुता क्यों दे रहे हो ? (८९) जो निन्दास्पद, उपहसनीय और नरकगति में जाने योग्य कार्य होता है वह उत्तम पुरुषको इस संसार में नहीं करना चाहिए। (९०) ऐसा कथन सुनकर पवनगति मनमें विचारने लगा कि यह अनुल्लंघनीय है। गुरुजनके आदेशका पालन करना चाहिए । (९१) अथवा पाणिग्रहण करके उसे छोड़ दूँ, क्योंकि वह अवश्य ही मेरे अथवा अन्यके लिए इष्ट नहीं है । (९२)
मैं
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