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________________ १४७ १४.०] १४. अणंतविरियधम्मकहणाहियारो एसो बारसमेओ, होइ तवो जिणवरेहि उद्दिट्ठो । कम्मट्ठनिज्जरटुं, करेन्ति समणा समियपावा ॥ ७६ ॥ देहे वि निरवयक्खा, निरहंकारा जिइन्दिया धीरा । बारसअणुपेक्खासु य, निययं भावेन्ति अप्पाणं ॥ ७७ ॥ वासी-चन्दणसरिसा, मन्वन्ति सुहं तहेव दुक्खं वा । नत्थत्थर्मियनिवासी, सीहा इव निब्भया समणा ।। ७८ ।। धरणी विव सबसहा, पवणो 'इव सबसङ्गपरिमुक्का । गयणं व निम्मलमणा, गम्भीरा सायरं चेव ।। ७९ ।। सोमा निसायरं पिव. तेएण दिवायरं व दिप्पन्ता । मेरु ब धीरगरुया, विहगा इव सङ्गपरिहीणा ॥ ८० ॥ दिया है। जिनके पाप शान्त हो गये हैं ऐसे श्रमण कर्मोंकी निर्जरा (क्षय) के लिए इसका आचरण करते हैं। (७६) शरीरमें भी अनासक्त, निरहंकार, जितेन्द्रय तथा धीर जन बारह अनुप्रेक्षाओंमें' आत्माकी नित्य भावना करते हैं । (७७) श्रमण वासीचन्दनसदृश होनेसे सुख-दुःखको समान मानते हैं, सूर्यके अस्त होने पर ठहर जाते हैं और सिंहकी भाँति होते हैं। (७) श्रमण पृथ्वीको भाँति सब कुछ सहन करनेवाले, पवनकी भाँति सब प्रकारके संग से विमुक्त, माकाशकी भाँति निर्मल मनवाले, सागरकी भाँति गम्भीर चन्द्रमाकी भाँति सौम्य, सूर्यकी भाँति तेजसे दीप्त, मेरुके भाँति धीरगम्भीर और पक्षीकी भाँति संगरहित होते हैं । (७९-८०) साधुजन अठारह हजार प्रकारके शीटके अंगोंको' धारण करते हैं। निराकुल लालचो कम करना। (४) रसपरित्याग-घी, दूध, मद्य, मधु, मक्खन भादि विकारजनक रसका त्याग। (५) कायक्लेश-टंड, गरमी तथा विविध आसनों द्वारा शरीरको कष्ट देना। (६) विविक्त शय्यासन-बाधारहित एकान्त स्थानमें रहना । छः अभ्यन्तर तप ये हैं : (१) प्रायश्चित-धारण किये हुए व्रतमें प्रमाइजनित दोषों का शोधन करना। (२) विनय-ज्ञान आदि सदगुणों में बहुमान करना। (३) वैयावृत्त्य-योग्य साधनोंको जुटाकर अथवा अपने आरको काममें लगाकर गुरुजन थादिकी सेवा-शुश्रषा करना। (४) स्वाध्याय-ज्ञान प्राप्तिके लिए विविध प्रकारका अभ्यास करना। (५) ध्यान-चित्तके विक्षेपोंका त्याग करना । (६) उत्सर्ग-अहन्त्व और ममत्वका त्याग करना । १. अनुप्रेक्षा ( अनु + प्रेक्षा) का अर्थ है गहन चिन्तन । तात्त्विक एवं गहन चिन्तनसे राग-द्वेष आदि वृत्तियाँ रुक जाती हैं। जिन विषयों का चिन्तन जीवनशुद्धिमें विशेष उपयोगी हो सकता है, ऐसे बारह विषयोंको चुनकर उनके विविध चिन्तनको ही बारह अनुप्रेक्षाभोंके रूपमें गिनाया है। अनुप्रेक्षाको भावना भी कहते हैं। ये बारह अनुप्रेक्षाएँ इस प्रकार हैं - (१) अनित्यानुप्रेक्षा-भासक्ति कम करने के लिए शरीर एवं घरबार आदिमें अनित्यत्व एवं अस्थिरत्वका चिन्तन करना । (२) अशरणानुप्रेक्षा-सिंहके पंजे में पड़े हुए हिरनकी भाँति आधि, व्याधि एवं उपाधिसे प्रस्त मैं भी सर्वदा के लिए अशरण हूँ ऐसा चिन्तन करना । (३) संसारानुप्रेक्षा-संसारगत तृष्णाका त्याग करने के लिए 'यह संसार हर्व-शोक, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वका अधिान और सचमुच ही कष्टमय है। ऐसा सोचना । (४) एकत्वानुप्रेक्षा-निलंपताको साधनाके लिए 'मैं अकेला ही जन्मता-मरता हूँ तथा अकेला ही अपने किये कर्मों का फल भोगता हूँ' ऐसा चिन्तन करना । (५) अन्यत्वानप्रेक्षा-शरीर एवं वाह्य पदों' परसे आसक्ति दूर करने के लिए शरीर आदिको स्थूलता व जड़ताका तथा आत्माको सूक्ष्मता व चेतनता आदिका चिन्तन करना । (६) अशुचित्वानुप्रेक्षा-शरीर ही सबसे बड़ा आसक्तिका स्थान है, अतः उस परसे आसक्ति दूर करनेके लिए उसकी अशुचिताका चिन्तन करना । (५) आस्रवानुप्रेक्षा-इन्द्रियोंके भोगोंकी आसक्तिको घटानेके लिए इन्द्रिय सम्वन्धी रागमें से उत्पन्न होनेवाले अनिष्ट परिणामोंका चिन्तन करना । (८) संवरानुप्रेक्षा-दुर्घत्तिके द्वारोंको वन्द करनेके लिए सवृत्ति के गुणों का चिन्तन करना । (९) निर्जरानुप्रेक्षा-कर्मके बन्धनोंको नष्ट करनेकी वृत्ति दृढ़ करनेके लिए उसके विविध विपाकोंका चिन्तन करना । (१०) लोकानुप्रेक्षा-तत्त्वज्ञानकी विशुद्धिके निमित्त विश्वके वास्तविक स्वरूपका चिन्तन करना । (११) बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा-प्राप्त हए मोक्षमार्गमें अप्रमत्तभावकी साधनाके लिए सोचना कि अनादि संसारके अनन्त दुःख सहते हुए जीवको सम्यग्दृष्टि एवं शुद्ध चारित्र पाना दुर्लभ है। (१२) धर्मस्वाक्ष्यातत्वानुप्रेक्षा-धर्ममार्गसे च्युत न होने तथा उससे स्थिरता बनाये रखनेके लिए सोचना कि जिससे सब प्राणियोंका कल्याण हो सकता है ऐसे सर्वगुणसम्पन धर्मका सत्पुरुषोंने उपदेश दिया है, यह कितना बढ़ा सौभाग्य है। २. वासीचन्दनसदृश-चन्दनके वृक्ष को कुल्हाड़ीसे काटने पर उससे अधिक सुगन्ध तो निकलती ही है, साथ ही काटनेपाली कुल्हाड़ीको भी वह सुगन्धित करता है, उसी प्रकार सच्चा साधक श्रमण भी अनिष्ट करनेवाले के प्रति मधुर दष्टि ही रखता है और अपकारक एवं उपकारक दोनों के प्रति ष या राग बुद्धि न रखकर समान भावसे व्यवहार करता है। , ३. शौलके अठारह हज़ार अंगोंकी गिनती इस प्रकार की जाती है- . . ___ जोए करणे सना, इन्दिय भोमाइ समणधम्मे य । सौलंगसहस्साणं अठारससहस्स णिप्फत्ती ॥ -ओघनियुक्ति, गाथा १७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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