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पउमचरियं
जे निणवराण धम्मं, करेन्ति पडिमाण तिष्णसङ्गाणं । पूयासु य उज्जुत्ता, ते होन्ति सुरा महिड्डीया ॥ धयवडय पट्टयं वा, धूवं दीवं च जे जिणाययणे । देन्ति नरा सोममणा, ते वि य देवत्तणमुवेन्ति ॥ एवंविहं तु दाणं, दाऊण नरा परंपरसुहाई । भोत्तूण देवमणुयत्तणम्मि पच्छा सिवं जन्ति ॥ सुणिऊण भाणुको, दाणं सयवित्थरं कयपणामो । पुच्छइ अणन्तविरियं, सामिय धम्मं परिकहेहि ॥ तो भणइ अणन्तबलो, दुविहो धम्मो जिणेहि उवइट्टो । सोयार निरायारो, सो वि हु बहुपज्जओ होइ ॥ श्रमणधर्मः -
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हिंसा - ऽलिय- चोरिका - मेहुण - परिभ्गहस्स नियत्ती । एयाई पञ्च महबयाणि समणाण भणियाणि ॥ इरिया भासा तह एसणा य आयाणमेव निक्खेवो । उच्चाराई समिई, पञ्चमिया होइ नायबा ॥ मणगुत्ती वयगुत्ती, तहेव कायस्स जा हवइ गुत्ती । एयाउ मुणिवरेणं, निययमिह धारियबाओ ॥ कोहो माणो माया, लोभो रागो य दोससंजुत्तो । एए निरुम्भियबा, देहे लीणा महासत्तू ॥ अणसणमूणोयरिया, वित्तीसंखेव कायपरिपीडा । रसपरिचागो य तहा, विवित्तसयणासणं चेव ॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं चिय उस्सग्गो, तवो य अब्भिन्तरो एसो ॥ जिनवरोंके धर्मको जो प्रमाणरूप मानते हैं और जो उनको पूजामें उद्यमशील रहते हैं वे बड़ी भारी ऋद्धिवाले देव होते हैं । (६५) जो सौम्यमनस्क मनुष्य जिन शासन में ध्वज एवं पताकाके लिए वस्त्र, धूप तथा दीपका दान देते हैं वे भी देवत्व प्राप्त करते हैं। (६६) इस प्रकारका दान देने से मनुष्य देव एवं मानव भवमें सुखोंको परम्पराका उपभोग करके बादमें मोक्षमें जाते हैं । (६७)
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इस प्रकार विस्तार के साथ दानके बारेमें सुनकर प्रणत भानुकर्णने अनन्तवीर्यसे निवेदन किया कि, हे स्वामी ! धर्म के बारेमें आप कहें। (६८) इसपर अनन्तवीर्य प्रभुने कहा कि जिनेश्वर भगवानोंने दो प्रकारके धर्मका उपदेश दिया है, सागार और अनगार। इसके भी अनेक भेद हैं । (६६) हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन एवं परिग्रहसे निवृत्ति - ये श्रमणोंके पाँच महाव्रत कहे गये हैं । (७२) ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप तथा उत्सर्ग - ये पाँच समितियाँ ज्ञातव्य हैं । २ (७१) मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति - ये तीन गुप्तियाँ मुनिवरको अवश्यमेव धारण करनी चाहिए रे । ( ७२ ) क्रोध, मान, माया, लोभ तथा द्वेष के साथ राग - ये शरीरमें रहनेवाले महाशत्रु हैं, अतः इनका विरोध करना चाहिए । (७३) अनशन, ऊनोदरिता, वृत्तिसंक्षेप, कायक्ल ेश, रसपरित्याग तथा विविक्तशय्यासन - ये छः बाह्य तप हैं । (७४) प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और उत्सर्ग ये छः अभ्यन्तर तप हैं । (७५) जिनवरोंने बारह प्रकारके इस तपका उपदेश
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१. सागारः निरगारः ।
२. (१) ईर्यासमिति - किसी भी जन्तुको क्लेश हो इस प्रकार सावधानी से चलना । (२) भाषासमिति - सत्य, हितकारी, परिमित एवं सन्देहरहित बोलना । (३) एषणासमिति - जीवनयात्रा के लिए आवश्यक निर्दोष साधनों को जुटाने में सावधानीके साथ प्रवृत्ति करना । (४) आदान निश्चेपसमिति - त्रस्तुमात्राको भलीभाँति देखकर तथा प्रमार्जित करके लेना या रखना । (५) उत्सर्गसमिति - जन्तुशून्य अदेशमें देखकर एवं प्रमार्जित करके ही अनुपयोगी वस्तुओं को डालना ।
३. (१) काय गुप्ति - लेने-देने अथवा बैठने-उठने आदिमें विवेकपूर्वक शारीरिक व्यापारका नियम करना । (२) वचनगुप्ति — बोलनेका प्रसंग उपस्थित होने पर या तो वचनका नियम करना या अवसरोचित मौन धारण करना । (३) मनोगुप्तिं दुष्ट एवं भले-बुरे मिश्र संकल्पका परित्याग करके शुभ संकल्पका सेवन करना ।
४. जिस तपमें शारीरिक क्रियाकी प्रधानता होती है वह बाह्य तप और जिसमें मानसिक क्रियाको प्रधानता होती है वह अभ्यन्तर अभ्यन्तर तपकी पुष्टिमें ही बाह्य तपका महत्त्व माना गया है । छ: बाह्य तप ये हैं- ( १ ) अनशन - मर्यादित समय तक अथवा जीवनके अन्ततक सभी प्रकारके आहारका त्याग करना । (२) ऊनोदरिता - भूख से कम आहार लेना । (३) वृत्तिसंक्षेप - विविध वस्तुओंकी
तप ।
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