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१४.६४] १४. अणंतविरियधम्मकहणाहियारो
१४५ गो-इत्थि-भूमिदाणं, सुवण्णदाणं च जे पउञ्जन्ति । ते पावकम्मगरुया, भमन्ति संसारकन्तारे ॥ ५० ॥ बन्धण-ताडण-दमणं, तु होइ गाईण दारुगं दुक्खं । हल-कुलिसेसु य पुहई, दारिज्जइ जन्तुसंघायं ॥ ५१ ॥ जो वि ह देइ कुमारी, सो वि हु रागं करेइ गिद्धि च । रागेण होइ मोहो, मोहेण वि दुग्गईगमण ॥ ५२ ॥ हेमं भयावहं पुण, आरम्भ-परिग्गहस्स आमूलं । तम्हा वज्जन्ति मुणी, चत्वारि इमाणि दाणाणि ॥ ५३ ॥ नाणं अभयपयाण, फासुयदाणं च भेसनं चेव । एए हवन्ति दाणा, उवइट्टा वीयरागेहिं ॥ ५४॥ नाणे उ दिवनाणी. दीहाऊ होइ अभयदाणेणं । आहारेण य भोगं, पावइ दाया नःसंदेहो ॥ ५५ ॥ लहइ य दिवसरीरं, साहूर्ण भेसजस्स दायारो । निरुवमअङ्गोवङ्गो, उत्तमभोगं च अणुहवइ ।। ५६ ॥ जह वड्डइ वडबीयं, पुहइयले पायवो हवइ तुङ्गो । तह मुणिवराण दाणं, दिन्नं विउलं हवइ पुण्णं ॥ ५७ ॥ जह खेत्तम्मि सुकिटे, सुबहुत्तं अब्भुयं हवइ बीयं । तह संजयाण दाणं, महन्तपुण्णावह होइ ।। ५८ ॥ जह ऊसरम्मि बीय, खित्तं न य तस्स होइ परिखुट्टी। तह मिच्छत्तमइलिए, पत्ते अफलं हवइ दाणं ॥ ५९॥ सद्धा सत्ती भत्ती, विनाणेण य हवेज नं दिन्नं । तं दाणं विहिदिन्नं, पुण्णफलं होइ नायवं ॥ ६०॥ विविहाउहगहियकरा, सबे देवा कसायसंजुत्ता । कामरइरागवसगा, निच्चकयमण्डणाभरणा ॥ ६१ ॥ जे एवमाइ देवा, न हु ते दाणस्स होन्ति नेयारो । सयमेव जे न तिण्णा, कह ते तारन्ति अन्नजणं? ॥ ६२ ॥ जइ पङ्गलेण पङ्ग, निजइ देसन्तरं सखन्धेणं । तह एएसु वि धम्मो, देवेसु न एत्थ संदेहो ॥ ६३ ॥
जे य पुण वीयरागा, तित्थयरा सबदोसपरिमुक्का । ते होन्ति नवरि लोए, उत्तमदाणस्स नेयारा ॥ ६४ ॥ अशुभ कर्मोसे भारी हो संसाररूपी जंगलमें भटकते हैं। (५०) बन्धन, ताड़न तथा दमन जैसा दारुण दुःख गायों को होता है। हलोंके फलोंसे जन्तुओंसे व्याप्त पृथ्वी तोड़ी-फोड़ी जाती है। (५१) जो कन्या देता है वह भी राग और भासक्ति पैदा करता है। रागसे मोह होता है और मोहसे तो दुर्गतिमें गमन होता है। (५२) सोना तो आरम्भ-परिग्रहका मूल है। अतः मुनि इन चार दानोंका परित्याग करते हैं। (५३) ज्ञान दान, अभयदान, प्रासुक अन्न-जलका दान तथा औषधदान-वीतराग द्वारा उपविष्ट ये चार दान हैं। (५४) ज्ञानदानसे दिव्य ज्ञानी, अभयदानसे दीर्घआयुष्य तथा आहारदानसे दाता भोग प्राप्त करता है इसमें सन्देह नहीं है। (५५) साधुको दवाका दान देनेवाला दिव्य शरीर व निरुपम अंगोपांग प्राप्त करता है तथा उत्तम भोगका अनुभव करता है। (५६) जिस प्रकार बरगदका बीज बढ़नेपर पृथ्वी पर विशाल वृक्ष बनता है उसी प्रकार मुनिवरको दान देनेसे विपुल पुण्य होता है। (५७) जिस प्रकार अच्छी तरह जुते गये खेतमें बहुत बड़ी मात्रामें और अद्भुत दाने पैदा होते हैं उसी प्रकार संयत मुनियोंको दिया गया दान बड़े भारी पुण्यका कारण होता है। (५८) जिस तरह ऊसर जमीनमें बीज बोने पर उसकी अभिवृद्धि नहीं होती, उसी तरह मिथ्यात्वसे मलिन पात्रमें दिया गया दान निष्फल जाता है। (५९) श्रद्धापूर्वक, यथाशक्ति, भक्तिभावसे तथा विवेकबुद्धिसे जो दान दिया जाता है वह विधिपूर्वक दिया वहा जाता है और वहीं पुण्यफलदायी होता है ऐसा समझना चाहिए । (६०) विविध प्रकारके आयुध हाथमें धारण करनेवाले, सब देव काम रति एवं रागके वशीभूत तथा सदैव मण्डन व आभूषण धारण करनेवाले होते हैं । (६२) ऐसे ही जो दसरे देव हैं वेदानको ग्रहण करनेवाले नहीं होते, क्योंकि जो स्वयं पार नहीं पहुँचे हैं वे दूसरे लोगोंको कैसे पार लगायेंगे? (६२) जिस प्रकार एक लंगड़ा दूसरे लंगड़ेको अपने कन्धेपर बिठाकर दूसरे स्थानपर ले जाय (जो अशक्य है), उसी प्रकार इसमें सन्देह नहीं कि इन देवोंमें धर्म असम्भव है। (६३) जो सब दोषोंसे रहित वीतराग तीर्थकर होते हैं वे इस लोकमें उत्तम दानके अधिकारी हैं। (६४) आसक्तिसे पार उतरे हुए
१. अनुयोगद्वारेषु कुलिसस्थाने कुलियाशब्दो दृश्यते-"जणं हल-कुलियादीहिं खेत्ताई उवक्कामिज्जन्ति" सूत्र ६. पत्र ४८.१ । “अधोनिबद्धतिर्यतीक्ष्णलोहपट्टिकं मयिकालघुतरं काष्ठं तृणादिच्छेदार्थ यत् क्षेत्रे वाह्यते तद् मरुमण्डलादिप्रसिद्ध कुलिकमुच्यते।
२. श्रद्धया शक्त्या भक्त्या ।
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