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पउमचरियं
[१४.८१अट्ठारस य सहस्सा, सीलङ्गाणं धरन्ति सप्पुरिसा । चिन्तन्ता परमपयं, विहरन्ति अणाउला समणा ॥ ८१ ॥ उप्पन्नरिद्धि-विहवा. जिणवरधम्मेण साहवो धीरा । तवसिरिविहूसियङ्गा, अब्भुयकम्माणि कुबन्ति ॥ ८२ ॥ केएत्थ दियसनाह, नित्यं तक्खणेण कुबन्ति । उच्छाइऊण चन्द, केई मेह व वरिसन्ति ।। ८३ ॥ चालन्ति मन्दरगिरिं, नभेण वच्चन्ति पवणसमवेगा । चलणरएण मुणिवरा, पसमन्ति अणेयवाहीओ ॥ ८४ ॥ मह-खीर-सप्पिसविणो, अमयस्सविणो य कोहबुद्धी य । केई पयाणुसारी, अवरे संभिन्नसोया य ॥ ८५ ॥ एवंविहा य समणा, कालं काऊण निययनोगेणं । ठाणाइँ देवलोए, पावन्ति सिवालयं केइ ॥ ८६ ॥ उववन्ना कयपुण्णा, सोहम्माईसु वरविमाणेसु । केई हवन्ति इन्दा, सामाणिय अङ्गरक्खा य ॥ ८७ ॥ एवं बहुप्पयारा, अहमुत्तम-मज्झिमा सुरा भणिया । अवरे वि य अहमिन्दा, केइत्थ सिवालयं पत्ता ॥ ८८ ॥
श्रमण परमपद मोक्षका चिन्तन करते हुए विचरते हैं। (८१) जिनवरके धर्मके आचरणके फलस्वरूप आमोसही आदि ऋद्धि एवं वैभव जिनमें उत्पन्न हुए हैं ऐसे धोर और तपरूपी लक्ष्मोसे विभूषित शरीरवाजे साधुपुरुष अद्भुत कार्य करते हैं। (२) तपके प्रभावसे कोई तो सूर्यको तत्क्षग निस्तेज बना देते हैं तो कोई चन्द्रको उछालकर बादलकी भाँति बरसाते हैं। (३) कोई मेरुपर्वतको चलित करते हैं, तो पवनके समान वेगवाले कोई आकाशमार्गसे जाते हैं। मुनिवर चरणकी रजसे अनेक व्याधियोंको शान्त करते हैं। (८४) कोई शहद, दूध एवं घृत बहानेवाले होते हैं, कोई अमृतवर्षी होते हैं, कोई ऐसे होते हैं जो एक बार जानने पर फिर कभी नहीं भूलते, कोई दूर दूर तक उड़कर जाने-आनेकी शक्तिवाले होते हैं तो दूसरे कोई शरीरके किसी भी अंगसे सुननेकी अथवा एक इन्द्रियसे सब इन्द्रियोंका कार्य लेनेकी क्षमता रखते हैं। (५) ऐसे श्रमण मर करके अपने अपने योगके अनुसार देवलोकमें स्थान प्राप्त करते हैं और कोई कोई तो शिवधाम मोक्ष भी प्राप्त करते हैं। (८६) जिन्होंने पुण्यका उपार्जन किया है ऐसे कई सौधर्मादि उत्तम विमानों में उत्पन्न होकर इन्द्र, सामानिक और अंगरक्षक बनते हैं। (८७) इस तरह बहुत प्रकारके अधम, मध्यम तथा उत्तम देव कहे गये हैं। दूसरे अहमिन्द्र होते हैं और कई पुण्यशाली तो यहीं पर मोक्ष प्राप्त करते हैं (८८)
अर्थात् योग, करण, संज्ञा, इन्द्रिय, पृथ्वीकाय आदि तथा श्रमणधर्म-इस प्रकार शीलके अठारह हज़ार अंगोंकी सिद्धि होती है। एसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है
यतिधर्म दस प्रकारका है:-(१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) मुक्त, (५) तप, (६) संयम, (७) सत्य, (८) शौच, (९) अकिंचनत्व और (१०) ब्रह्मचर्य। ये शोलके दस अंग हुए। इन धर्मो से युक्त यतिको (१) पृथ्वीकाय-समारम्भ, (२) अप्कायसमारम्भ, (३) तेजस्काय-समारम्भ, (४) वायुकाय-समारम्भ, (५) वनस्पतिकाय-समारम्भ, (६) द्वोन्द्रिय-समारम्भ, (७) त्रीन्द्रिय-समारम्भ, (८) चतुरिन्द्रियसमारम्भ, (९) पंचेन्द्रिय-समारम्भ, तथा (१०) अजीव-समारम्भ (अजीवमें जीवबुद्धि) इन दस समारम्भों का त्याग करना चाहिए। अतः उपर्युक्त क्षमा आदि दस यतिधर्ममें से प्रत्येक गुण दस दस प्रकारका होने पर शोलके १०० अंग हुए।
यतिधर्मयुक्त यतना ( जयणा ) पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके करनी पड़ती है, अत: कुल संख्या ...(१०.४५ =५००) हुई। यतिधर्मयुक्त यतना द्वारा किया गया इन्द्रियजय आहारसज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञासे रहित होना चाहिए, तथा वह मन, वचन एवं कायासे अकृत, अकारित और अननुमोदनरूप होनेसे ५.०x४४३४३ = १८,००० होता है।
१. वैदिक, बौद्ध एवं जैन सभी परम्परामोमें योगजन्य विभूति अथवा लब्धियोंका वर्णन आता है। पातंजल योगसूत्रके द्वितीय तथा तृतीय पादमें इसका सविस्तार वर्णन है। इसी प्रकार जैन परम्पराके शास्त्रों में भी संयमसे प्राप्त होनेवाली अनेक लब्धियोंका उल्लेख आता है। उनमें से कतिपय ये हैं-आमोसहि ( स्पर्शमात्रसे रोगका दूर होना ); विप्पोसहि, खेलोसहि, जल्लोसहि (शरीरके मूत्र, इलेष्म आदि मलोंके स्पर्शसे ही रोगका दूर होना); संभिन्नसोय (शरीर के किसी भी भागसे सुन सकना अथवा प्रत्येक इन्द्रिय द्वारा अन्य इन्द्रियोंका कार्य सम्पन्न होना ; सयोसहि ( सब अवयव औषधका कार्य करें ), चारण ( दूर-दूरतक उड़कर जाने-आनेकी शक्ति ), बासीविस ( शाप देनेकी शक्ति )। विशेष के लिए देखो 'योगशतक' परिशिष्ट ३ ।
२. ग्रेवेयक और अनत्तर विमानके निवासी देव ।
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