________________
१४२
पउमचरियं
सुणिऊण तस्स वयणं, अवइण्णो रावणो जणियतोसो । वन्दइ मुणिवरवसहं, तिक्खुत्त पयाहिणं काउं ॥ ६ ॥ ताव पिढमयरं देवा अभिवन्दिऊण उबविट्टा । बीओ सुराहिवो इव, तत्थाऽऽसीणो दहमुहो वि ॥ ७ ॥ देव- मणुए एत्तो, खेयरवसहेसु आसणत्थेसु । सीसेण तत्थ समणो, जोवहियं पुच्छिओ धम्मं ॥ ८ ॥ तो फुड-वियडपयत्थं, निम्मल-निउणं सहावमहुरगिरं । कहिऊण समाढत्तो, बन्धं मोक्खं च मुणिवसहो ॥ ९ ॥ अट्ठविहकम्मबद्धो, जीवो परिभमइ दीहसंसारं । दुक्खाणि अणुहवन्तो, उदएणं वेयणिज्जस्स ॥ १० ॥
११ ॥
१२ ॥
कह वि माणुसतं, लभइ य परिनिज्जराऍ कम्माणं । तह वि य न कुणइ धम्मं, रस-फरिसवसाणुगो जीवो ॥ रचा दुट्टा मूढा, जे एत्थ कुणन्ति पावयं कम्मं । ते जन्ति नरयलोयं, बहुवेयणसंकुलं घोरं ॥ वच्चन्ति महारम्भा, महाहिगरणा परिम्गहमहन्ता । तिबकसायपरिणया, ते वि य नरयं पवज्जन्ति ॥ नरक गति:
१३ ॥
माया-पि-गुरु-भाया-भगिणी - पत्ती-सुयं च घाएन्ति । ते चण्डकम्मकारी, वच्चन्ति मैया महानरयं ॥ सरसलुद्धगा विय, वाउरिया वाह मच्छवन्धा य । आलीविया वि चोरा, गामा - SSगर - देसघाया य ॥ जेविय मारेन्ति पसू, पुरोहिया होमकारगुज्जुत्ता । गुम्माहिवई वि नरा, ते विय नरगोवगा हुन्ति ॥ सीह - ऽच्छभल्ल - चित्तय-तन्तुय - तिमि - मयर - सुंसुमारा य । वच्चन्ति ते वि नरयं जीवाहारा महापावा ॥ पाडिप्पवग-चलाया, गिद्धा कुरुला य वञ्जुला चेव । उरगा महोरगा वि य, सबे ते नरयपहगामी ॥ एउ महारम्भा, भणामि एत्तो महाहिगरणा य । जे नरवईण मन्ती, दूया आएसदाया य ॥
१४ ॥
१५ ॥
Jain Education International
१६ ॥
१७ ॥
१८ ॥
१९ ॥
कथन सुनकर आनन्दमें आया हुआ रावण नीचे उतरा और तीन बार प्रदक्षिणा देकर मुनियों में वृषभ के समान श्रेष्ठ ऐसे उन मुनिवरको वन्दन किया । (६) तबतक तो वन्दन करके पहले ही देव बैठ गये थे। दूसरे सुरेश अर्थात् इन्द्रके जैसा रावण भी वहाँ जाकर बैठा । (७) वहाँ देव, मनुष्य तथा उत्तम विद्याधरोंके आसन पर बैठ जाने पर किसी एक शिष्यने श्रमण भगवान् से जीवोंके लिए कल्याणकर धर्मके बारेमें पूछा । (5) तब स्फुट एवं गम्भीर पद तथा अर्थवाली, अत्यन्त निर्मल और अत्यन्त मधुर वाणी में मुनियोंमें श्रेष्ठ ऐसे अनन्तवीर्य प्रभुने बन्ध एवं मोक्षके बारेमें कहना शुरू किया । (९)
For Private & Personal Use Only
[ 1४. ६
आठ प्रकारके कर्मों से बद्ध जीव वेदनीय कर्मके उदयके अनुसार दुःखोंका अनुभव करता हुआ दीर्घ संसारमें परिभ्रमण करता है । (१०) कर्मोंकी निर्जरावश यदि वह किसी तरह मनुष्यभव प्राप्त करता है तो भी रस एवं स्पर्शके वशीभूत होकर जीव धर्म नहीं करता । (११) इस संसार में जो दुष्ट एवं मूढ़ जीव पापकर्म करते हैं वे अत्यन्त वेदनासे भरे हुए घोर नरकलोकमें जाते हैं । ( १२ ) जो हिंसादि महान् आरम्भ समारम्भ करनेवाले हैं, जो अत्यन्त असंयमी होते हैं, जो बड़ा भारी परिग्रह रखते हैं और जो क्रोधादि तीव्र कषायोंसे युक्त होते हैं वे भी नरकमें जाते हैं । (१३) जो माता, पिता, गुरु, भाई, बहन, पत्नी और पुत्रका घात करते हैं- ऐसे भयंकर कर्म करनेवाले भी मर करके घोर नरक में जाते हैं । (१४) मांस एवं रसमें लुब्ध, शिकारी, बहेलिये, मच्छीमार, आग लगानेवाले, चोर, गाँव नगर एवं देशका विनाश करनेवाले तथा यज्ञके लिए उद्युक्त जो पुरोहित पशुको मारते हैं और जो मनुष्य सेना के अधिपति होते हैं वे भी नरकमें जानेवाले होते हैं । (१४-१६) सिंह, रींछ-भालू, चिता तथा तन्तु ( जलजन्तु - विशेष ), मछली, मगरमच्छ एवं सुंसुमार (मत्स्य - विशेष ) जीवों का आहार करनेवाले ऐसे जो महापापी पशु हैं वे भी नरकमें जाते हैं। (१७) पारिप्लवक (पक्षी - विशेष) बगुले, गीध, कुरुल ( पक्षी - विशेष ), वंजुल ( पक्षी - विशेष ), सर्प तथा महानाग- ये सभी नरकमार्गके अनुगामी हैं । (१८) ये सब महारम्भ अर्थात् हिंसादि पापाचार करनेवाले हैं। अब जो महाधिकरण अर्थात् असंयमी हैं उनके बारेमें कहता हूँ । राजाके जो मंत्री, दूत तथा आज्ञाका पालन करनेवाले हैं, जो बाण एवं अस्त्रविद्या के उपाध्याय हैं, जो विष एवं धतके प्रयोक्ता १. त्रिवरा । २. मृताः । ३. वागुरिकाः ।
www.jainelibrary.org