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________________ १४३ १४. ३४] १४. अणंतविग्यिधम्मकहणाहियारो ईसत्थउवज्झाया, विसनोगपउञ्जणा अलियवादी । मरिऊण जन्ति निरयं, नरिन्दनेमित्तिया जे य ॥ २० ॥ अन्ने वि एवमाई, वायाए अज्जिणन्ति जे पावं । ते सबै अहिगरणा, हवन्ति नरओवगा मणुया ॥ २१ ॥ चक्कहरा य नरिन्दा, मण्डलिया रट्टसामिणो जे य । अन्ने वि एवमाई, बहवे नरओवगा होन्ति ॥ २२ ॥ मण-वयण-कायगुत्तं, निरहंकारं जिइन्दियं धीरं । समणं च जो दुगुञ्छइ, सो वि य नरयं समज्जेइ ॥ २३ ॥ एवंविहा य जीवा, नरए वहुवेयणा समुप्पन्ना । छिज्जन्ति य भिजन्ति य, करवत्त-ऽसिपत्त-जन्तेसु ॥ २४ ॥ सीहेसु य वग्घेसु य, पक्खीसु य लोहतुण्डमाईमु । खज्जन्ति आरसन्ता, पावा पावन्ति दुक्खाई ॥ २५ ॥ तियंगतिःजे पुण नियडीकुडिला, कूडतुला-कूडमाणववहारी । रसभेदिणो य पावा, जे य ठिया करिसणाईसु ॥ २६ ॥ अन्ने वि एवमाई, इन्दियवसगा विमुक्कधम्मधुरा । अट्टज्झाणेण मया, ते वि य गच्छन्ति तिरियगई ॥ २७ ॥ निच्चं भयद्यमणा, असण-तिसा-वेयणापरिग्गहिया । अणुहोन्ति तिरियजीवा, तिक्खं दुक्खं निययकालं ॥ २८ ॥ मनुष्यगति:गो-महिसि-उट्ट-पसुया, तणचारी एवमाईया बहवे । मरिऊण होन्ति मणुया, मन्दकसाया नरा जे य ॥ २९ ॥ आरिय-अणारिया वि य, कुलेसु अहमुत्तमेसु उववन्ना । अप्पाउया य दीहाउया य जीवा सकम्मेसु ॥ ३० ॥ केएत्थ अन्ध-बहिरा, मूया खुज्जा य वामणा पङ्ग । धणवन्ता गुणवन्ता, केइ दरिद्देण अभिभूया ॥ ३१ ॥ लोभमहागहगहिया, केई पविसन्ति रणमुहं सूरा । अवरे य सायरवरे, वीईसंघट्टकल्लोले ॥ ३२ ॥ केएत्थ अडविमझे, सत्थाहा पविसरन्ति बोहणयं । अन्ने वि करिसणाईवावारसएसु संजुत्ता ॥ ३३ ॥ देवगतिः एवं मणुयगईए, सबत्तो जाणिऊण दुक्खाइं । सहरागसंजमा वि य, करेन्ति धम्मं बहुवियप्पं ॥ ३४ ॥ हैं, जो असत्यवादी हैं तथा राजाके जो ज्योतिषी हैं वे मर करके नरकमें जाते हैं। (१६-२०) ऐसे ही दूसरे भी जो वचनके पापको नहीं जीतते वे सब अधिकरण (असंयमी) मनुष्य नरकमें जानेवाले होते हैं। (२१) चक्रवर्ती राजा, सामन्त, जो राष्ट्रके अधिपति होते हैं वे तथा ऐसे दूसरे भी बहुतसे नरकगामी होते हैं। (२२) मन, वचन एवं कायाका संयम करनेवाले, निरहंकार, जितेन्द्रिय तथा धीर ऐसे श्रमणकी जो निन्दा करता है वह भो नरक प्राप्त करता है । (२३) अत्यन्त वेदनावाले नरकोंमें उत्पन्न ऐसे जीव करवत, तलवार तथा यंत्रों द्वारा काटे तथा खण्ड खण्ड किये जाते हैं। (२४) सिंह, व्याघ्र तथा लोहतुण्ड आदि पक्षियों द्वारा वे खाये जाते हैं। उस समय चिल्लाते हुए वे पापी दुःख प्राप्त करते हैं । (२५) जो कपटी और कुटिल होते हैं, जो मूठे तौल और झूठे मापसे व्यवहार करते हैं, जो रसवालो चीजोंमें मिलावट करते हैं, जो खेती आदिमें लगे हुए हैं तथा दूसरे भी ऐसे ही जो इन्द्रियके वशीभूत एवं धर्मधुराका त्याग करनेवाले होते हैं वे भी आर्तध्यानसे मरकर तियच गतिमें जाते हैं । (२६.२७) भयसे पीड़ित मनवाले तथा खाने-पीनेकी वेदनासे व्याकुल पशु-पक्षी आदि तिर्यंच जोव नियत काल तक अर्थात् आयुष्यपर्यन्त सदैव तीव्र दुःखका अनुभव करते हैं। (२८) गाय, भैंस तथा ऊँट और ऐसे ही दूसरे घास खानेवाले पशु तथा मन्द कपायवाले मनुष्य मर करके मनुष्य होते हैं। (२९) अल्प आयुष्य अथवा दीर्घ आयुष्यवाले जीव अपने कर्मके अनुसार आर्य अथवा अनार्य तथा उत्तम अथवा अधम कुलोंमें उत्पन्न होते हैं । (३०) कोई यहाँ पर अन्धे, बहिरे, गूंगे, कुबड़े, बौने, पंगु होते हैं, कोई धनी और गुनी होते हैं तो कोई दारिद्रयसे अभिभूत होते हैं। लोभरूपी महाग्रहसे ग्रस्त कोई शूरवीर युद्धके मुखमें तो दूसरे तरंगोंके टकरानेसे शब्दायमान समुद्र में प्रवेश करते हैं । इस संसारमें कई सार्थवाह बीहड जंगल में प्रवेश करते हैं तो दूसरे खेती आदि सैकड़ों व्यापारों में जुड़े हुए हैं। (३१-३३) इस प्रकार मनुष्यगतिमें चारों ओर दुख है ऐसा जानकर सरागसंयमी (गृहस्थ ) अनेक प्रकारके धर्मका पालन करते हैं । (३५) पाँच अणुव्रतसे युक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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