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१४. अणंतविरियधम्मकहणाहियारो सम्मत्तभावियमई. तं महिलं पेच्छिउँ दयावन्नो । समणो पसन्नमणसो, जाओ चिय तक्खणं चेव ॥ ४६ ॥ निम्ममनिरहङ्कार, जो निन्दइ साहवं दढचरितं । आहणइ सवइ मूढो, सो पावइ दीहसंसारं ॥ ४७ ॥ एवं नाऊण तुमे, पुण्णस्स पराभवस्स य विसेसं । धम्मेण नवरि छिज्जइ, एयं दुक्खासयं सर्व ।। ४८ ।। सुणिऊण निययचरियं, सक्को संवेगजायसब्भावो । पणमइ मुणी निसण्णो, पुणो पुणो मुणियपरमत्थो ॥ १९ ॥ दाऊणं उवएस, साहू संपत्थिओ निययठाणं । इन्दो वि सयलरज्जे, ठवेई पुत्तं विरियदत्तं ॥ ५० ॥ आपुच्छिऊण सक्को, माया-पिय-सयण-महिलियाओ य । गिण्हइ जिणोवइ8, पबजं दुक्खमोक्खट्टे ॥ ५१ ।।
अन्नोन्नजोगकरणेहि तबोविहाणं, काऊण कम्मकलुसस्स य सकनासं । उप्पन्ननाणविमलामलसुद्धभावो, इन्दो सिवं उवगओ परिनिट्टियट्ठो ॥ ५२ ॥ ॥ इय पउमचरिए इन्दनिव्वाणगमणो नाम तेरसमो उद्देसओ समत्तो।।
१४. अणंतविरियधम्मकहणाहियारो अह सो सुरिन्दनाहो, मेरुं गन्तूण चेइयहराई । थोऊण पडिनियत्तो, आगच्छइ निययलीलाए ॥ १ ॥ घणगुरुगभीरसरिसं, सई सोऊण रावणो खुहिओ । पेच्छइ य पलोयन्तो, कुंकुमवण्णं दिसाचकं ॥ २ ॥ परिपुच्छइ मारीई, कस्सेसो मेहसरिसनिग्योसो?। किं वा इमं समत्थं, भुवणं रत्तारुणच्छायं? ॥ ३ ॥ भणइ तओ मारीई, सुवण्णतुङ्गे अणन्तविरियस्स । लोगा-ऽलोगपगासं, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥ ४ ॥
जन्ताण साहुमूलं, देवाणं एस तूरनिग्धोसो । मणिमउडकिरणपसरिय-रएण भुवणं पि विच्छुरियं ॥ ५॥ गया । (४६) ममत्व एवं अहंकार रहित तथा चरित्रमें दृढ़ ऐसे साधुकी जो मूर्ख निन्दा करते हैं, उन्हें मारते हैं या दु.ली करते हैं वे दीर्घ संसार प्राप्त करते हैं । (४७) इस प्रकार पुण्य एवं पराभवके बोच जो विशेषता है वह तुम जानो। वस्तुतः इस समूचे दुःखका आधार धर्मसे ही नष्ट होता है। (४८)
अपने पूर्वाचरणके बारे में सुनकर वैराग्यभाव जिसे उत्पन्न हुआ है ऐसे उस इन्द्रने मुनिको वन्दन किया और परमार्थपर पुनः पुनः विचार करता हुआ बैठा । (४९) उपदेश देकर साधुने अपने स्थानकी ओर प्रस्थान किया। इन्द्रने भी अपने समग्र राज्यपर वीर्यदत्त नामक पुत्रको स्थापित किया । (५०) माता, पिता, स्वजन एवं पत्नियोंकी अनुमति प्राप्त करके इन्द्रने दुःखके विनाशके लिए जिनोपदिष्ट प्रत्रज्या अंगीकार की। (५१) विभिन्न योग एवं करणोंसे तपविधि करके तथा कर्मरूपी मैलका सर्वनाश करके निर्मल ज्ञान एवं निष्कलंक व शुद्ध भाववाले और अर्थके पारगामी इन्द्रने मोक्ष प्राप्त किया। (५२)
। पदमचरितमें इन्द्रका निर्वाण-गमन नामक तेरहवाँ उद्देश समाप्त हुआ।
१४. अनन्तवीर्यका धर्मोपदेश एक बार वह सुरेन्द्रनाथ रावण मेरुपर्वत पर जाकर और चैत्यगृहोंमें स्तवन करके आरामसे वापस लौट रहा था (१) बादलके समान अतिगम्भीर शब्द सुनकर रावण क्षुब्ध हुआ। चारों तरफ दृष्टि डालने पर उसने कुकुमके सदृश वर्णवाली दिशाएँ देखीं । (२) उसने मारीचिसे पूछा कि मेघके समान यह निर्घोष किसका है ? और यह समग्र लोक अरुणके समान लालकान्तिवाला क्यों हो गया है ? (३) इस पर मारीचिने कहा कि सुवर्णगिरिके ऊपर अनन्तवीर्यको लोक एवं अलोकको प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान हुआ है जो प्राणियोंके कल्याणके मूलरूप है। देवोंके वाद्योंका यह निर्घोष है तथा उनके मुकुटोंकी मणियोंमेंसे निकलनेवाली किरणोंके प्रकाशसे यह विश्व व्याप्त हो गया है। (४-५) उसका
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