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पउमचरियं
[१२.११४सीसगहिएकमेक्का, सामियसम्माणलद्धमाहप्पा । जुज्झन्ति समरसूरा, कायरपुरिसा पलायन्ति ॥ ११४ ॥ जुज्झन्ताण सहरिसं, अन्नोन्नावडियसत्थघायग्गी । पज्जलइ सबओ च्चिय, जणयन्तो सुहडसंतावं ॥ ११५ ॥ पडपडह-मेरि-काहल-गयगज्जिय-तुरयहिंसियरवेणं । न सुणन्ति एकमेकं, उल्लावं कण्णवडियं पि ॥ ११ ॥ खग्ग-सर-सत्ति-तोमर-पया लोलन्ति केइ महिवट्टे । पडिउट्टियं करेन्ता, अवरे हिण्डन्ति वरनोहा ||: ॥ तक्खणमेत्तक्कत्तिय-निवडियसिररुहिरदिन्नचच्चिक्का । विसमाहयतूररवे, नचन्ति कबन्धसंघाया ॥ ११. एयारिसम्मि जुज्झे, निवडन्ते सुहडसत्थसंघाए । लङ्काहिवेण भणिओ, अह एत्तो सारही सुमई ॥ ११९ ॥ वाहेहि रहवरं मे, तुरियं इन्दस्स अहिमुई समरे । किं मारिएहि कीरइ, अन्नेहि अतुल्लविरिएहिं ! ॥ १२० ॥ गुण-रूवअसामन्नं, इन्दत्तं जं इमेग आढत्तं । फेडेमि सबमेयं, गवं विज्जाबलुप्पन्नं ॥ १२१ ॥ एवभणिएण सिग्धं, सारहिणा धय-वडायकयसोहो । मण-पवणसरिसवेगो. इन्दाभिमुहो रहो छहो ॥ १२२ ॥ दटूण रावणं ते, एज्जन्तं सुरभडा भउबिग्गा । अह नासिउं पयत्ता, लङ्घन्ता चेव अन्नोन्नं ॥ १भग्गं दळूण बलं, इन्दो एरावणट्टिओ कुद्धो । मुञ्चन्तो सरवरिसं, रक्खसनाहस्स अल्लीणो || २४ ।। तं रावणो वि एन्तं, सरवरिसं निययबाणपहरेहिं । सिग्धं दुहा विरिक, करेइ धगुवेयचलहत्थो ॥ १२ ॥ घेत्तण तो सरोसं, अग्गेयं 'पहरणं सुरिन्देणं । लाहिवस्स उवरिं, विसज्जियं जलणपज्ज लियं ॥ १ ॥ आरोलियं समत्थं, घणतावुम्हवियरक्खसाणीयं । अह रावणेण सिम्घं. वारुणसत्थेण विज्झवियं ॥ १ ॥ इन्देण पुणरवि लह, विसज्जिय तामसं महासत्थं । तं रावणो वि सिग्घ, उज्जोयत्येण नासेइ ॥ १२८ ॥ जमदण्डसरिसरुवा, नायसरा फणमणीसु पजलिया । लङ्काहिवेग मुक्का, सयलं बन्धन्ति सुरसेन्नं ॥ १२९ ।।
साथ पैदल भिड़ गये । (११३) एक-दूसरेके सिर लेकर और इस तरह अपने-अपने स्वामियोंसे सम्मान और शाबाशी प्राप्त करनेवाले रणशूर सैनिक तो युद्ध कर रहे थे, जब कि कायर पुरुष भाग जाते थे। (११४) गुस्से में आकर लड़नेवाले योद्धा एक-दूसरे पर जो शस्त्र फेंकते थे उनके टकरानेसे उत्पन्न होनेवाली और सुभटोंको जलानेवालो आग चारों ओर जल रही थी। (११५) बड़े-बड़े नगाड़े, ढोल और काल जैसे वाद्य तथा हाथियोंकी चिंघाड़ और घोड़ोंकी हिनहिनाहटके मारे कानमें पड़े हुए शब्द भी एक-दूसरेको सुनाई नहीं पड़ते थे। (११६) खड्ग, बाण, शक्ति एवं तोमरके प्रहारसे कई योद्धा जमीन पर लोट पड़ते थे और दूसरे अच्छे लड़ाकू उठ करके चलने लगते थे। (११७) उसी क्षण काटनेसे नीचे गिरे हुए मस्तकके रक्तसे लिपटे हुए धड़ोंके समूह आरोह-अवरोहके साथ बजाये जानेवाले वाद्योंकी ध्वनिमें नाचते थे। (११८)
जब इस प्रकार युद्ध हो रहा था और सुभटों द्वारा फेके गये शस्त्र-समूह गिर रहे थे तब लङ्काधिपति रावणने सारथी सुमतिसे कहा कि युद्धभूमिमें मेरा रथ तुम जल्दी हो इन्द्र के सम्मुख ले जाओ। असमान बलवाले दूसरे योद्धाओंको मारकर क्या करूँ ? (११९-२ः) इसने गुण और रूपकी दृष्टिसे अयोग्य ऐसा जो इन्द्रत्व प्राप्त किया है उसे तथा विद्या एवं बलसे उत्पन्न गर्व-इन सबको मैं नष्ट करता हूँ। (१२१) इस प्रकार कहनेपर सारथी ध्वज एवं पताकाओंसे शोभित तथा मन और पवनके जैसा वेगवाला रथ इन्द्रके सम्मुख ले गया। (१२२) रावणको आते देख भयसे उद्विग्न देव-सुभट एक दूसरेके ऊपर गिरते-पड़ते भागने लगे। (१२३) अपने सैन्यका विनाश देखकर गुस्से में आया हुआ इन्द्र बाणोंकी वर्षा करता हुआ रावणके पास आ पहुँचा । (१२४) धनुष्यके वेगके कारण चंचल हाथवाले रावणने उस आती हुई शर वर्षाके अपने बाणोंके प्रहारोंसे शीघ्र ही टुकड़े-टुकड़ेकर डाले। (१२५) तब सुरेन्द्रने रोषपूर्वक आगसे जलते हुए आग्नेय शस्त्रको उठाकर लंकाके राजा रावणपर छोड़ा । (१२६) अत्यन्त आकुलित समस्त राक्षससैन्यको एकत्रित करके रावणने शीघ्र ही वारुण शस्त्रसे उस आग्नेय-शस्त्रको बुझा दिया । (१२७) फिर इन्द्रने फौरन ही तामस नामका महाशस्त्र फेंका। रावणने उद्योत नामक शस्त्रके द्वारा उसका भी तत्काल नाश कर डाला । (१२८) बादमें लंकेश रावणने यमके दण्डके समान रूपवाले तथा फोंमें लगे हुए मणियोंसे प्रज्वलित नाग-बाण फेंके। उन्होंने समग्र देव-सेनाको बाँध लिया । (१२९) नागोंके द्वारा
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