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१२. वेयडुगमण - इन्दबंधण लंकापरे सणाहियारो
सिहि केसरिदण्डो विय, उग्गो कणयप्पभाइया सुहडा । जुज्झन्ति तेहि समयं, सिरिमालि - पसन्नकित्तीहि ॥ ९८ ॥ सिरिमालीण रणमुहे, एयाण भडाण अद्धयन्देहिं । छिन्नाइँ पडन्ति महिं, सिराइँ नह पङ्कयाई व ॥ दण मारिया ते, भिच्चा सयमेव उट्टिओ इन्दो । घरिओ य अल्लियन्तो, पुत्तेण तओ जयन्तेणं ॥ अच्छ पहू ! वीसत्थओ, जावेए रणमुहे विवाडेमि । नक्खेण जं विलुप्पइ, तत्थ य परसृण किं कज्जं १ ॥ सिरिमा लि- जयन्ताणं, आवडियं दारुणं महाजुज्झं । विविहाउहसंघट्ट, उट्टन्तफुलिङ्गजालोहं ॥ सिरिमालीण सहरिसं, चावं आयड्डिऊण कणएणं । विरहो कओ जयन्तो मुच्छावसवेम्भलो जाओ ॥ आसासिऊण समरे, तत्थ जयन्तेण परमरुट्टेणं । पहओ धणन्तरोवर, सिरिमालि गयप्पहारेणं ॥ द विगयजीयं, सिरिमालि इन्दई रणमुहम्मि | वाहेऊण रहवरं, अभिमुहिहूओ जयन्तस्स ॥ रावणपुण रणे, सुरिन्द्रपुत्तो सरेहि निब्भिन्नो । रुहिरारुणियसरीरो, गिरि व जह गेरुयालिद्धो ॥ दण तं जयन्तं पुत्तं सरघायरुहिरविच्छड्ड । उद्घाइओ य सहसा, इन्दो एरावणारुढो || ढकारवेण महया, विथडघडा-रह-तुरङ्ग-पाइकं । वेढेइ इन्द्रसेनं, समन्तओ इन्द्रकुमारं ॥ आलोइऊण पुत्तं वेढिज्जन्तं रणे सुखलेणं । लङ्काहिवो पयट्टो, इन्द्राभिमु रहवरत्थो ॥ इन्द्रस्स लोगपाला, आवडिया रक्खसा य रणसूरा । मुञ्चन्ता सरवरिसं, परोप्परं दारुणामरिसा ॥ असि-कणय-चक्र- तोमर - मोग्गर-करवाल- कोन्त-सुलेहिं । पहरन्ति एकमेकं, अदिन्नपट्टी रणे सुहडा ॥ ण ण णत्ति कत्थइ, कत्थइ खण खण खणन्ति खग्गाई । तड तड तड त्ति कत्थइ, सद्दो सरभिन्नदेहागं ॥ हत्थी हत्थीण समं, आलम्गो रहवरो सह रहेणं । तुरण सह तुरङ्गो, पाइको सह पयत्येणं ॥
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शिखी, केसरी, दण्ड, उग्र, तथा कनकप्रभ आदि सुभट श्रीमालो तथा प्रसन्नकीर्ति आदिके साथ जूझने लगे । (९८) युद्धक्षेत्र में श्रीमालीने इन सुभटोंके सिर अर्द्धचन्द्र नामक बाणोंके प्रहार से पंकजकी भाँति तोड़कर जमीन पर लुढ़का दिये । (९९) इन सेवकोंका मरण देखकर स्वयं इन्द्र उठ खड़ा हुआ । तब उसके पुत्र जयन्तने पास में जाकर उसे रोका कि, हे प्रभो ! जबतक मैं इन्हें युद्ध में धराशायी करता हूँ तबतक आप विश्वस्त होकर ठहरो । जो नाखूनसे काटा जा सकता है वहाँ कुल्हाड़ीका क्या प्रयोजन ? (१००-१०१)
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श्रीमाली एवं जयन्त इन दोनोंके बीच दारुण महायुद्ध होने लगा । विविध प्रकार के आयुधोंकी टकराहटके कारण वहाँ उठती हुई चिनगारियांका जाल-सा लग गया । (१०२) श्रीमालीने गुस्सेमें धनुष्यको खोंचकर बाण छोड़ा। उससे जयन्त रथसे च्युत कर दिया गया । मूर्च्छाके कारण वह विह्वल हो गया । (१०३) होश में आने पर अत्यन्त क्रोध में आये हुए जयन्तने उस युद्ध में श्रीमालीको छातीके बीच गदाके प्रहारसे आघात किया । (१०४) श्रीमालीको मरा जान इन्द्रजित युद्ध में रथ लेकर आया और जयन्तके सामने उपस्थित हुआ । (१०५) रावणके पुत्र इन्द्रजितने सुरेन्द्रके पुत्र जयन्तको बाणोंसे ऐसा तो जर्जरित कर दिया कि गेरुसे युक्त पर्वतको भाँति उसका शरीर रुधिरसे लाल-लाल हो गया । (१०६) बाणोंके आघातसे रक्त- प्लावित अपने पुत्रको देखकर ऐशवत हाथी के ऊपर आरूढ़ इन्द्र सहसा दौड़ा । ( १०७ ) नगाड़ोंके बड़े भारी आवाजके साथ बादलोंकी विस्तृत घटाके सरीखी रथ, घोड़े और पैदल सैनिकोंसे युक्त इन्द्रकी सेनाने इन्द्रजितकुमारको चारों ओरसे घेर लिया । (१०८) देवताओंके सैन्यके द्वारा अपने पुत्रको युद्ध में घिरा देखकर उत्तम रथके ऊपर स्थित रावण इन्द्रके सम्मुख उपस्थित हुआ । (१०९) इधर इन्द्रके लोकपाल आये तो उधर लड़ने में बहादुर राक्षस भी आ डटे । क्रोधयुक्त वे सब एक-दूसरे के ऊपर बाणोंकी वर्षा करने लगे । (११०) तलवार, बाण, चक्र, तोमर, मुद्गर, खुखरी, बर्डी तथा भालोंसे वे सुभट उस युद्ध में पीठ दिखाये बिना एक-दूसरे पर प्रहार करने लगे । (१११) 'मारो, मारो, मारो' इस प्रकार सैनिक चिल्ला रहे थे । 'खन् खन् खन्' इस प्रकार तलवारें खनखना रही थीं। बाणोंसे विद्ध शरीर में से 'तड् तड् तड्' ऐसा शब्द निकल रहा था। (११२) हाथियोंके साथ हाथी, रथके साथ रथ, घोड़ेके साथ घोड़े और पैदलके
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