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१२. वेयड्डगमण-इन्दबंधण लंकापवेसणाहियारो
दट्टण निययसेन्नं, बद्धं नाएहिं विगयसुहचेट्टं । गरुडत्थेण सुरवई, भुयङ्गपासे पणासेइ ॥ लङ्काहिवो सुरिन्द्रं दगुणं नागपासपरिमुकं । आरुहइ तक्खणं चिय, भुवणालङ्कारमत्तगयं ॥ सक्को वि गयवरिन्दे, चडिओ एरावणे गिरिसरिच्छे। जुज्झइ दसाणणेणं, समयं हत्थी वि हत्थीणं ॥ दोणि वि महागइन्दा, आवडिया कढिणदप्पमाहप्पा । उत्तुङ्गमुसलदन्ता, उप्पाइयपवया चैव ॥ दोणि वि छुहन्ति घाए, दन्तेसु करेसु पुरिसगत्तेसु । गज्जन्ति गुलगुलेन्ति य, मेहा इव पाउसे काले ॥ पगलन्तदाणसलिला, महुयरगुञ्जन्तबद्धपरिवेढा । चवलपरिहत्थदच्छा, जुज्झन्ति रणे महाहत्थी ॥ जुज्झन्ति गया, ताव श्चिय दहमुहेण सुरनाहो । अभिलङ्घिऊण गहिओ, हत्यारोहं विवाडेउं ॥ दिवंसएण बद्धो, निययगइन्डं च वलइ सिग्धं । ववगयदप्पुच्छाहो, चन्द्रो इव राहुगहणम्मि ॥ घे पुणो मुको, इन्दसुओ इन्दईण संगामे । किं वा तुसेसु कीरइ, तन्दुलसारम्मि संगहिए ? ॥ एतो इन्दस्स बलं, सबं गयवर तुरङ्ग - पाइकं । भग्गं पलायमाणं वेयगिरिं समणुपत्तं ॥ त्राहिवई, दसाणणो निययसाहणसमग्गो । लङ्काहिंमुहो चलिओ, छायन्तो अम्बरं विउलं ॥ दट्टण समासन्ने, लङ्कापुरिजणवओ परियणो य । आगन्तूण अभिमुहो, अहिणन्दइ मङ्गलसएसु ॥ ऊ सियसियायवत्तो, सुललियधुवन्तचामराजुयलो । लङ्कापुरिं पविट्टो, देवावसहिं व देविन्दो ॥ संपत्तो निययधरं, नाणाविहमणिमऊहपज्जलियं । नयस दुग्घुट्टरवो, पुप्फविमाणाउ अवइण्णो ॥ सन्नद्ध-बद्ध कवया निणिऊण सत्तू, आणामिया य बहवे वरभूमिपाला । पुजिए विमलेण सुहोद एण, लङ्काहिवो रमइ तत्थ सुहावगाढो ॥ १४४ ॥
॥ इह पउमचरिए वेयडूगमण- इंदबन्ध रण- लङ्कापवेसणो नाम बारसमो उद्देश्रो समत्तो ॥ बद्ध और उस कारण सुखपूर्वक चेष्टा करना असम्भव हो गया है ऐसे अपने सैन्यको देखकर सुरपतिने गरुड़ात्र द्वारा सर्पोके बन्धनका नाश किया । (१३०) नागपाश से विमुक्त सुरेन्द्रको देखकर रावण फौरन ही भुवनालङ्कार नामके अपने मत्त हाथीपर सवार हुआ । (१३१) इन्द्र भी पर्वत सरीखे उत्तम ऐरावत हाथीपर चढ़ा और इस तरह हाथोके साथ हाथीको भिड़ाकर रावणके साथ लड़ने लगा । (१३२) भयंकर दर्पसे गौरवशाली, मुसलके जैसे बड़े-बड़े दाँतवाले और उखाड़े हुए पर्वतके जैसे वे दोनों महागजेन्द्र एक दूसरेसे भिड़ गये । (१३३) दोनों दाँतोंपर, सूढ़ोंपर तथा पुरुष गात्रांपर चोट लगाते थे और वर्षाकालीन बादलोंकी भाँति गर्जना करते थे। (१३४) जिनमें से मदका पानी भर रहा है और घेरा लगाकर भौंरे जिनपर गूँज रहे हैं तथा चपल एवं निपुण दाँतोंवाले वे दोनों हाथी युद्ध में जूझ रहे थे । (१३५) जिस समय वे हाथी लड़ रहे थे उस समय ऊपर से लाँघकर और महावतको गिराकर रावणने इन्द्रको पकड़ लिया । (१३६) दिव्य वस्त्रसे आवृत्त और राहुसे मस्त चन्द्रकी भाँति दर्प एवं उत्साह से शून्य इन्द्रने अपने हाथीको शीघ्र ही लौटा लिया । (१३७) संग्राम में इन्द्रजितने इन्द्रमुत जयन्तको पकड़कर फिर छोड़ दिया। साररूप चावल ले लेनेके पश्चात् भूसे से क्या प्रयोजन ? (१३८) इधर इन्द्रकी हाथी, घोड़े और पैदलरूप सारी सेना तितरबितर होकर भागी और वैताढ्यगिरिके पास आ पहुँची । (१३९) रावणका लंका- प्रवेश -
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देवेन्द्र इन्द्रको पकड़कर अपनी सेनाके साथ रावण विशाल आकाशको छाता हुआ लंकाकी घर चला। (१४०) लंकानगरी के निवासी और परिजन रावणको समीपमें आते देख सामने गये और सैकड़ों मंगलाचारोंसे उसका अभिनन्दन करने लगे । (१४१) श्वेत छत्र धरे हुए और दो सुन्दर चँवर डुलाए जाते रावणने देवसभा में प्रवेश करनेवाले इन्द्रकी भाँति लंकापुरी में प्रवेश किया। (१४२) पुष्पकविमानमें से नीचे उतरा हुआ और 'जय जय' शब्दोंसे उद्घोषित रावणने नानाविध मणियों में से निकलनेवाली किरणोंसे प्रज्वलित अपने महलमें प्रवेश किया । (१४३) कवचधारी शत्रुओंको जीतकर और बहुतसे अच्छे-अच्छे राजाओं को झुकाकर पूर्वार्जित विमल पुण्योदय के प्रभावसे सुखमें लीन लंकानरेश रावण वहाँ आनन्दक्रीड़ा करने लगा । (१४४) । पद्मचरित में वैताढ्यगमन, इन्द्रबन्धन तथा लंकाप्रवेश नाम वारहवाँ उद्देश समाप्त हुआ ।
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