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१२.८२]
१२. वेयड्डगमण-इन्दबंधण-लंकापवेसणाहियरो लङ्काहिवेण भणिया, उवरम्भा मह तुमं गुरू भद्दे ! । जो देसि बलसमिद्धं, विज्ज आसालियं नाम || ६९ ॥ उत्तमकुलसंभूया, जाया वि य सुन्दरीऍ गब्भम्मि । कासद्धयस्स दुहिया, सीलं रक्खन्तिया होहि ॥ ७० ॥ अज्ज वि तुज्झ पिययमो, जीवइ भद्दे ! सुरुव-लायण्णो । एएण सह विसिट्टे, भुञ्जसु भोए चिरं कालं ॥ ७१ ॥ संपूइऊण मुक्को, राया नलकुब्बरो दहमुहेणं । अमुणियदोसविभाओ, भुञ्जइ भोगे सम तीए ॥ ७२ ॥ रावणस्य इन्द्रेण समं युद्धम्निणिऊण समरमज्झे. दुल्लपुराहिवं सह बलेणं । पत्तो वेयवगिरि, दहवयणो इन्दविसयम्मि ॥ ७३ ॥ सुणिऊण तत्थ इन्दो, समागयं रावणं समासन्ने । रिवुयणकज्जारम्भ, पुच्छइ पियरं सहस्सारं ॥ ७४ ॥ तो भणइ सहम्सारो, पुत्तय एसो बलेण संपन्नो। विज्जासहस्सधारी, एएण समं वरं सन्धी ।। ७५ ॥ दवण साहणेण व, जाव यं सत्त समो व अहिओ वा । नाऊण देस-यालं, ताव य सन्धी करेयवा ॥ ७६ ॥ पुबपुरिसेहि भणियं, बलिएहि समं न कीरइ विवाओ । होइ महायासयरो, तं पुण कजं न साहेइ ।। ७७ ।। तं चेव जाणमाणो, पुत्तय ! मा मुज्झ निययकजम्मि । एयस्स देहि कन्नं, नइ इच्छसि अत्तणो रज्जं ॥ ७७ ।। सुणिऊण वयणमेयं, इन्दो दढरोसपरिगयसरीरो । अह भाणिउं पवत्तो, सद्देण नहं व फोडन्तो ॥ ७९ ॥ वज्झस्स य दायबा, कन्ना कह ताय ! भासियं दीणं ? । माणुन्नयगरुयाणं, न होइ एयारिसं कम्मं ॥ ८० ।। छजइ मरणं पि रणे, उत्तमपुरिसाण धीरहिययाणं । न य परपणामणियं, रज्जं पि करेइ निवाणं ॥ ८१ ॥
एवं भणिऊण सक्को, सिघं सन्नाहमण्डवं लीणो । सन्नज्झिउं पयत्तो, समयं चिय लोगपालेहिं ॥ ८२ ॥ मुझे बलसे समृद्ध आशालिका नामकी विद्या दी थो, इस कारण तुम मेरो गुरु हो । (६९) तुम उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई हो। सुन्दरीकी कूखसे तुम पैदा हुई हो और आकाशध्वजकी तुम पुत्री हो, अतः तुम्हें अपने शीलकी रक्षा करनी चाहिए। (७०) भद्रे! अब भी सुन्दर रूप और लावण्यसे युक्त तुम्हरा प्रियतम जीवित है, अतः उसके साथ तुम चिरकाल पर्यन्त विशिष्ट भोगोंका उपभोग करो । (७१) रावणने यथोचित सत्कार करके राजा नलकूबरको छोड़ दिया। रावणके साथके परिचयजन्य दोषको न जानता हुआ वह उस उपरम्भाके साथ भोग भोगने लगा । (७२) . इन्द्रके साथ युद्ध
इस प्रकार दुर्लघपुरके राजाको युद्ध में जीतकर रावण सैन्यके साथ वैतादयगिरिमें आये हुए इन्द्रके देशमें आ पहुँचा। (७३) उस प्रदेशमें रावणका आगमन हुआ है ऐसा सुनकर इन्द्र अपने पिता सहस्रारसे शत्रुको लक्ष्यमें रखकर किये जानेवाले कार्यकी तैयारीके बारेमें पूछने लगा। (७४) इस पर सहस्रारने कहा कि, हे तात! यह बलसे सम्पन्न तथा हजारों विद्याओंको धारण करनेवाला है। अतः इसके साथ तो सन्धि कर लेना ही उत्तम है। (७५) यदि शत्रु तुल्य बलवाला अथवा अधिक हो तो देश-कालका विचार करके द्रव्य और दूसरी साधन-सामग्री देकर उसके साथ सन्धि कर लेनी चाहिए। (७६) पुरखोंने कहा है कि बलवानके साथ विवाद नहीं करना चाहिए। उसके साथका विवाद अत्यन्त दुःखदायी होता है और उससे अपना कार्य भी सिद्ध नहीं होगा। (७७) हे पुत्र ! तू तो उसे जानता ही है, अतः अपने कार्यमें प्रमाद न कर । यदि तू अपना राज्य सुरक्षित रखना चाहता है तो उसे अपनी लड़की दे दे। (७८)
यह सुनकर जिसके शरीरमें अत्यन्त रोष व्याप्त हो गया है ऐसा इन्द्र शब्दसे मानो आकाश फोड़ना चाहता हो इस तरह कहने लगा कि पिताजी! जो वध्य है उसे मैं कन्या , ऐसा दीनवचन आपने क्यों कहा? स्वाभिमानसे जो उन्नत एवं गुरु हैं उनका कार्य ऐसा नहीं होता । (००-८०) धीर हृदयवाले उत्तम पुरुषों के लिए युद्ध में मर जाना बेहतर है, परन्तु शत्रुको प्रणाम करनेसे मिलनेवाला सुख-चैन और राज्य नहीं चाहिए। ऐसा कहकर इन्द्र शीघ्र ही आयुधशालामें
१. य सत्तुरस होइ सममहिओ-मु०। २. वयण-प्रत्यः ।
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