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________________ १३२ पउमचरियं [१२. ५४काऊण सिरपणाम, एगन्ते भणइ रावणं दृई । जेण निमित्तेण पहू!, विसज्जिया तं निसामेहि ॥ ५४ ॥ नलकुब्बरस्स महिला, उवरम्भा, नाम अस्थि विक्खाया । ताए विसज्जिया वि हु, नामेणं चित्तमाला हं ॥ ५५ ॥ सा तुझ दरिसगुम्सुय-हियया चिन्तेइ पेमसंबद्धा । निब्भरगुणाणुरत्ता, कुणसु पसायं दरिसणेणं ॥ ५६ ॥ ठइऊण दो वि कण्णे, रयणासवनन्दणो भणइ एवं । वेसं परमहिलं पिय, न रूवमन्तं पि पेच्छेमि ॥ ५७ ॥ इह-परलोयविरुद्ध, परदारं वज्जियवयं निच्चं । उच्चिट्टभोयणं पिव, नरेण दढसीलजुत्तेणं ॥ ५८ ॥ नाऊग दूइकजं, भणिओ मन्तीहि तत्य कुसलेहिं । अलियमवि भासियवं. अप्पहियं परिगणन्तेहिं ।। ५९ ॥ तुद्रा कयाइ महिला, सामिय! भेयं करेज नयरस्स । सम्मागदिन्नपसरा, सम्भावपरायणा होइ ।। ६० ।। भणिऊण एवमेयं, दूई वि विसज्जिया दहमुहेणं । गन्तूण सामिणीए, साइ संदेसयं सच ।। ६१ ॥ सुणिऊण य उवरम्भा, वयणं दूईऍ निग्गया तुरिया । पत्ता दसागगहरं, तत्थ पविठ्ठा सुहासीणा ॥ ६२ ॥ भणिया य दहमुहेणं, भहे किं एत्य रइसुहं रणे? । न य होइ माणियबं, दुल्लपुरं पमोत्तणं ॥ ६३ ॥ सोऊणं उवरम्भा, तं वयणं महुर-मम्मणुल्लावं । देइ मयणा उरा सा, विज्जा आसालिया तस्स ॥ ६४ ॥ तं पाविऊण विजं, दहवयणो सबबलसमूहेणं । दुल्लङ्घपुरनिवेसं, गन्तूणं हरइ पायारं ॥ ६५ ।। सोऊण रावणं सो, समागयं नासियं च पायारं । अहिमाणेण य राया, विणिम्गओ कुब्बरो सहसा ।। ६६ ।। अह जुज्झिउं पवत्तो, समयं चिय रक्खसेहि संगामे । सर-सत्ति-कोन्त-तोमर-उभओक्खिप्पन्तसंघाए ॥ ६७ ॥ अह दारुणम्मि जुज्झे, वन्ते सुड्डजीवनासयरे । गहिओ बिहीसणेणं, नलकुबरपत्थिवो समरे ॥ ६८ ॥ - आ भी पहुँची । (५३) सिरसे प्रणाम करनेके पश्चात् दूतीने रावणसे एकान्तमें कहा कि, हे प्रभो ! जिस कारण मैं यहाँ भेजी गई हूँ उसे आप ध्यानपूर्वक सुनें । (५४) नलकूबरकी उपरम्भाके नामसे एक विख्यात पत्नी है। उसने मुझे यहाँ भेजा है। मेरा नाम चित्रमाला है। (५५) तुम्हारे साथ प्रेमसे सम्बद्ध वह हृदयसे तुम्हारे दर्शनके लिए उत्सुक है। तुम्हारे गुगों में वह अत्यन्त अनुरक्त है, अतः दर्शन देकर उस पर कृपा कीजिए । (५६) दोनों कानोंको ढंककर रत्नश्रवाके पुत्र रावणने कहा कि वेश्या और दूसरेकी स्त्री रूपमती होने पर भी मैं उसको इच्छा नहीं रखता। (५७) दृढ़शीलयुक्त मनुष्यके लिये उच्छिष्ट भोजनकी भाँति दूसरेकी स्त्रीको अपनाना इस लोक और परलोकके विरुद्ध होता है। उसकेलिए तो परदार विरमणबत ही सर्वदा पालनीय होता है। (५८) दूतीके कार्यके बारेमें जानकर कुशल मंत्रियोंने कहा कि आत्महितका विचार करनेवालेको झूठ भी बोलना चाहिए। (५९) हे स्वामी! सन्तुष्ट स्त्री भी शायद नगरका भेद कर सके, क्योंकि खूब सम्मान देनेसे वह सद्भावपरायण होती है । (६०) दशमुखने 'भले ऐसा ही हो' ऐसा कहकर दूतीको बिदा किया। अपनी मालकिनके पास जाकर उसने सारा सन्देश कह सुनाया। (६१) दूतीका वचन सुनकर उपरम्भा जल्दी ही निकल पड़ी। वह दशाननके आवासके पास पहुँची और उसमें प्रवेश करके सुखासन पर बैठी । (६२) दशमुख रावणने उसे कहा कि, भद्रे! इस जंगलमें रतिसुख कैसे मनाया जा सकता है? दुर्लघपुरको छोड़कर वह नहीं मनाया जा सकता। (६३) मधुर एवं कामजनक वचन सनकर कामातुर उस उपरम्भाने रावणको आशालिका नामकी विद्या दी। (६४) उस विद्याको प्राप्त करके रावणने सदलबल दलधपुरके पास जाकर किले पर कब्जा जमा लिया । (६५) रावणने आकर निलेको तहसनहस कर दिया है ऐसा मनकर नलकबर राजा अभिमानके साथ एकदम बाहर निकला और दोनों ओरसे फके जानेवाले बाण, शक्ति, भाले और मटरोंसे युक्त रणभूमिमें राक्षसोंके साथ युद्ध करने लगा। (६६-६७) सुभटोंके प्राणोंका नाश करनेवाले उस दारुण युद्ध में विभीषणने नलकूबर राजाको युद्धभूमि पर ही पकड़ लिया। (६८) लंकाधिप रावणने उपरम्भासे कहा कि भद्रे! तुमने १. वेसा परमहिला विष न रूवमंता वि पत्थेमि-मु०। २. कोन्त-मोग्गर उभओ-मु.। Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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