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१२. वेयडगमग-इन्दबंधण-लंकापवेसणाहियारो मधुकुमारपूर्वभवः शूलरत्नोत्पत्तिश्च :एयन्तरम्मि पुच्छइ, गगनाहं सेणिओ कयपणामो । दिन्नं तिसूलरयगं, केण निमित्तण असुरेणं? ॥९॥ तो भणइ इन्दभूई, उप्पत्ती सुणसु सूलरयणस्स । धायइसण्डेरवए, सयदारपुरे दुवे मित्ता ॥ १० ॥ एक्को त्थ हवइ पभवो, सुमित्तनामो तओ भवे बीओ। एगगुरुसन्नियासे, सिक्वन्ति कलागम सयलं ॥ ११ ॥ जाओ रजाहिवई, तत्थ सुमित्तो गुणेहि पडिपुण्णो । पभवो वि तेग मित्तो, अप्पसरिच्छो को ताहे ॥ १२ ॥ अह अन्नया कयाई, रणं तुरएण पेसिओ सिाधं । गहिओ सुमित्तराया, भिल्लेहि अणज्जसीलेहिं ॥ १३ ॥ मिच्छाहिवेण दिन्ना, वणमाला तत्थ नरिन्दस्स । परिणेऊण नियतो, सयद्वारपुर अह पविट्टो ॥ १४ ॥ दट्टण मित्तभज्जं, पभवो कुसुमाउहस्त बाणेहिं । विद्धो असत्यदेहो, खणेग आयल्लयं पतो ॥ १५ ॥ दुक्खभरपीडियङ्ग, पभवं दट्टण पुच्छइ सुमितो । दुक्खस्स समुप्पत्ती, कहेहि जा ते पणासेमि ॥ १६ ॥ अह भणइ तत्थ पभवो, वेज्जनरिन्दाग मित्तपुरिसाणं । आहाणओ य लोए, एयाण फुड कहेयवं ॥ १७ ॥ नमिऊण तस्स चलणे, पभवो परिकहइ दुक्खउप्पत्तो । दट्टण तुज्झ महिलं, सामिय आयल्लयं पतो ॥ १८ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, भणइ सुमित्तो निसासु वगमालं । वच्च तुमं वीसत्या, पभवसयासं पसनमुही ॥ १९ ॥ गामसहस्सं सुन्दरि, देमि तुम जइ करेहि मित्तहियं । जइ तं नेच्छसि भद्दे ! घोरं ते निग्गहं काई ॥ २० ॥ भणिऊण वयणमेयं, वणमाला पत्थिया समपओसे । पत्ता पभवागारं, तेण य सा पुच्छिया सहसा ॥ २१ ॥ कासि तुमं वरसुन्दरि ! केण व कज्जेण आगया एत्थं? । तीए वि तत्स सिटुं, निययं वीवाइमाईयं ॥ २२ ॥ वट्टइ जावुल्लावो, नाणं तावाऽऽगओ तहिं राया । पच्छन्नरूवधारी, चिट्ठइ भवणन्तरनिलुक्को ॥ २३ ॥
इसके पश्चात् श्रेणिकने प्रणाम करके गणनाथ गौतमसे पूछा कि असुर रावणने त्रिशूलरत्न क्यों दिया था ? (९) इस पर इन्द्रभूति गौतमने कहा कि इस शूलरत्नकी उत्पत्तिके बारे में तुम सुनो। धातकी खण्डके ऐरावत क्षेत्रमें आये हुए शतद्वारपुर नामक नगरमें दो मित्र रहते थे। (१०) उनमेंसे एकका नाम प्रभव और दूसरेका नाम सुमित्र था। वे दोनों एक ही गुरुके पास सब कलाओं तथा शास्त्रोंका अभ्यास करते थे । (११) गुणों से परिपूर्ण सुमित्र उस नगर में राजा हुआ। उसने अपने मित्र प्रभवको अपने जैसा ही राजा बनाया । (१२) एक दिन सुमित्र राजाको घोड़ा जंगलमें तेजीसे खींच ले गया। वहाँ अनार्य आचरणवाले भीलोंने उसे पकड़ लिया। (१३) वहाँ म्लेच्छ राजाने अपनी कन्या वनमाला राजाको दी। उसके साथ शादी करके वह लौटा और शतद्वारनगरमें दाखिल हुआ। (१४) अपने मित्रकी पत्नीको देखकर कामदेवके बाणोंसे बींधा हुआ और अस्वस्थ शरीरवाला प्रभव एकदम बेचैन हो गया। (१५) दुःखके भारसे पीड़ित शरीरवाले प्रभवको देखकर सुमित्रने पूछा कि दुखको उत्पत्तिका कारण तुम मुझसे कहो, जिससे मैं तुम्हारा वह दुःखकारण दूर करूँ। (१६) इस पर प्रभवने कहा कि लोगोंमें ऐसी किंवदन्ती है कि वैद्य, राजा एवं मित्र पुरुषोंको साफ साफ कहना चाहिए । (१७) उसके चरणों में नमन करके प्रभव अपने दुःखकी उत्पत्तिका कारण कहने लगा कि, हे स्वामी ! तुम्हारी पत्नीको देखकर मैं बेचैन हो उठा हूँ। (१८) प्रभवका ऐसा कथन सुनकर रात्रिके समय सुमित्रने वनमालासे कहा कि, हे प्रसन्नमुखी! तुम विश्वस्त होकर प्रभवके पास जाओ। (१६) हे सुन्दरी! यदि तू मेरे मित्रका हित करेगी तो मैं तुझे एक हजार गाँव दूंगा और, हे भद्रे ! यदि तू उसे नहीं चाहेगी तो मैं तुझे कठोर दण्ड दूंगा । (२०) ऐसा कथन सुनकर वनमाला चल पड़ी और संध्याके समय प्रभवके आवासमें आ पहुँची। उसने उससे सहसा पूछा कि, हे सुन्दरी! तुम कौन हो ? और किसलिए यहाँ पर आई हो? उसने भी प्रभवसे अपने विवाह आदिके बारेमें कहा । (२१-२२) उन दोनोंका इस प्रकार वार्तालाप हो रहा था कि वहाँ गुप्तवेशधारी सुमित्र राजा आया और मकानमें छिपकर बैठ गया। (२३)
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