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________________ १३० पउमचरियं [१२.२४. तो जाणिऊण पभवो, वणमाला पेसिया सुमित्तेणं । संवेगसमावन्नो, पडिवहहुत्तं विसज्जेइ ॥ २४ ॥ हा! कट्ट चिय पावो, सुमित्तमहिलाहिलासकयहियओ । नूणं वज्जसरीरो, हिमं व जो हं न य विलीणो ॥ २५ ॥ किं वा जीवेण महं. अयसकलंकभडेण लोयम्मि? । खन्गेण निययसीसं. लुणामि सिग्धं अचारित्तो ॥ २६ ॥ आयडिऊण खग्गं, नीलुप्पलसन्निहं कयं कण्ठे । परिणायचेट्टिएणं, सहसा धरिओ सुमित्तेणं ॥ २७ ॥ रागेण व दोसेण व. जे पुरिसा अप्पयं विवायन्ति । ते पावमोहियमई, भमन्ति संसारकन्तारे ॥ २८ ॥ खग्गं कराउ हरियं, सो य सुमित्तेण उवसम नीओ। दोष्णि वि करेन्ति रज्ज, अवियण्हमणा वहं कालं ॥ २९ ॥ अह अन्नया कयाई, पवजं गिहिऊण कालगओ। ईसाणकप्पवासी, सुमित्तराया समुप्पन्नो ॥ ३० ॥ चइऊण विमाणाओ, माह विदेवीऍ गब्भसंभूओ । हरिवाहणस्स पुत्तो, जाओ एसो 'महकुमारो ॥ ३१ ॥ मिच्छत्तमोहियमई, पभवो मरिऊण भमिय संसारे । विस्सावसुस्स पुत्ते, जोइमईए सिही जाओ ॥ ३२ ॥ काऊण समणधम्म, सणियाणं तत्थ चेव कालगओ। जाओ भवणाहिवई, चमरकुमारो महिडीओ ॥ ३३ ॥ अवहिविसएण मित्तं, नाऊण पुराकयं च उवयारं । महुरायस्स य गन्तुं, तिसूलरयणं पणामेइ ॥ ३४ ॥ एयं ते परिकहियं, चरियं महपत्थिवस्स निस्सेसं । जो पढइ सुणइ सेणिय ! सो पुण्णफलं समज्जेइ ॥ ३५॥ लङ्काहिह्वो वि पुहई, जिणिऊणऽटारसेसु वरिसेसु । जिणचेइयपूयस्थ, अट्ठावयपवयं पत्तो ॥ ३६ ॥ काऊण जिणहराणं, पूर्य कुसुमेहि जलय-थलएहिं । वन्दइ पहट्ठमणसो, दहवयणो पत्थिवसमग्गो ॥ ३७॥ इधर सुमित्रने वनमालाको भेजा है ऐसा जानकर प्रभवको वैराग्य हो पाया। उसने वनमालाको वापस भेज दिया। (२४) वह पश्चात्ताप करने लगा कि, अफसोस है ! मैं पापी हूँ कि मैंने सुमित्रकी पत्नीके लिए मनमें अभिलाषा की। सचमुच ही मेरा शरीर वन का बना हुआ है, अन्यथा मैं बरफकी भाँति पिघल क्यों न गया ? अथवा लोकमें अपयशरूपी कलंकके कारण भयंकर ऐसे जीनेसे क्या फायदा? अचारित्रशील मैं अपना सिर तलवार से जल्दी ही उड़ा दें। (२५-२६) नीलोत्पलके जैसी तलवार खींचकर ज्योंही उसने मले पर रखी, त्याही प्रभवकी चेष्टाको जाननेवाले सुमित्रने वह पकड़ ली । (२७) राग किंवा द्वेषवश जो पुरुष अपनी हत्या करते हैं वे पापसे विमोहित बुद्धिवाले संसाररूपी अरण्यमें भटका करते हैं । (२८) हाथमेंसे तलवार लेकर सुमित्रने उसे शान्त किया। बादमें दोनोंने निर्विनमनसे बहुत काल तक राज्य किया । (२९) इसके बाद कभी प्रत्रज्या अंगीकार करके काल करने पर सुमित्र राजा ईशान नामक देवलोकमें उत्पन्न हुआ। (३०) विमानसे च्युत होकर वह माधवीदेवीके गर्भसे उत्पन्न और हरिवाहनका यह मधुकुमार पुत्र हुआ है। (३१) मिथ्यात्वसे मोहित बुद्धिवाला प्रभव मरकर और संसारमें परिभ्रमण करके विश्वावसुका शिखी नामका देदीप्यमान पुत्र हुआ। (३२) श्रावकधर्मका पालन करके और उसीमें निदानपूर्वक मरकर वह महान ऋद्धिवाला चमरकुमार नामका भवनाधिपति हुआ। (३३) अवधिज्ञान द्वारा मित्रको तथा पहलेके किये हुए उसके उपकारको जानकर यह मधुराजाके पास गया और त्रिशूलरत्न प्रदान किया। (३४) गौतमस्वामी कहते हैं कि, हे श्रेगिक ! इस प्रकार मधुनरेशका समग्र चरित मैंने तुमसे कहा। जो इसे पढ़ता है या सुनता है वह पुण्यफल प्राप्त करता है। (२५) लंकाका राजा रावण भी अठारह वर्षों में पृथ्वीको जीतकर जिनचैत्योंकी पूजाके निमित्त अष्टापद पर्वत पर आ पहुँचा। (३६) जल एवं स्थलमें उत्पन्न होनेवाले फूलोंसे जिनचैत्योंकी पूजा करके प्रहृष्ट मनवाला रावण दूसरे राजाओंके साथ वन्दन करने लगा । (३७) इस बीच इन्द्रके द्वारा लोकपालके पद पर अधिष्ठित नलकूबर दुलंघपुर नामके नगरमें १. वरकुमारो-प्रत्य० । २. पुहरं-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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