SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ पउमचरियं [ ११.६६दट्टण निययजणणी, परिणाया अङ्गमङ्गचिन्धेहिं । तुट्ठो लएइ धर्म, उत्तमचारित्त-सम्मत्तं ॥ ६६ ॥ कन्दप्प-कक्कयरई. निञ्चं गन्धव-कलहतलिच्छो । पुज्जो य नरवईण. हिण्डड पहवी जहिच्छाए ॥१७॥ देवेहि रक्खिओ नं. देवगई देवविब्भमुल्लावो । देवरिसि ति पयासो, नाओ च्चिय नारओ लोए ॥ ६८ ॥ गयणेण वच्चमाणो. जणनिवहं पेच्छिऊण अवइण्णो । भणइ मरुयं नरिन्दं, किं कजं ते समाढतं? ॥ ६९ ॥ पसवो वि बहुवियप्पा, बद्धा अच्छन्ति केण कज्जेणं? । केणेव कारणेणं, इहागया बम्भणा बहवे?॥ ७० ॥ संवत्तएण भणिओ. विप्पेणं किं न याणसे जन्नं । मरुयनरिन्देण कयं, परलोयत्थे महाधम्म? ॥ ७१ ॥ जो चउमुहेण पूर्व, उवइट्टो वेयसत्थनिष्फण्णो । जन्नो महागुणो वि हु, कायबो तोसु वण्णेस ॥ ७२ ॥ काऊण वेदिमज्झे, मन्तेसु पसू हवन्ति हन्तवा । देवा य तिप्पियबा, सोमाईया पयत्तेणं ॥ ७३ ॥ एसो धुवो त्ति धम्मो, जोएण य पायडो को लोए । इन्दिय-मणाभिरामं, देइ फलं देवलोगम्मि ॥ ७४ ॥ आर्षवेदसम्मता यज्ञाःसुणिऊण बयणमेयं, भणइ तओ नारओ मइपगब्भो। आरिसवेयाणुमयं, कहेमि जन्नं निसामेहि ।। ७५ ॥ वेइसरीरल्लीणो, मणजलणो नाणघयसुपज्जलिओ। कम्मतरुसमुप्पन्नं, मलसमिहासंचयं डहइ ॥ ७६ ॥ कोहो माणो माया, लोभो रागो य दोस-मोहो य । पसवा हवन्ति एए, हन्तवा इन्दिएहि समं ॥ ७७ ॥ सच्चं खमा अहिंसा, दायबा दक्खिणा सुपजत्ता । दसण-चरित्त-संजम-बम्भाईया इमे देवा ॥ ७८॥ एसो निणेहि भणिओ, जन्नो तच्चन्थवेयनिद्दिट्ठो । जोगविसेसेण कओ, देइ फलं परमनिवाणं ॥ ७९ ॥ पहचानकर तुष्ट उसने उत्तम चारित्र तथा सम्यक्त्व धर्म अंगीकार किया। (६६) सर्वशः भाँडकी भाँति हास्य-विनोद एवं अंगचेष्टा करनेमें अनुरक्त, गीतवाद्य व कलहप्रिय तथा राजाओं द्वारा पूजित वह इच्छानुसार पृथ्वी पर विचरण करता था। (६७) चूँकि देवोंने उसकी रक्षा की थी, देवलोकमें उसकी गति थी और देवोंके वैभवका वह कथन करनेवाला था, अतः वह नारद लोकमें देवर्षिके नामसे प्रख्यात हुआ । (६८) यज्ञ- आर्ष और अनार्ष आकाशमार्गसे जाता हुआ वह लोगोंफे अण्डको देखकर नीचे उतरा। उसने मरुत् राजासे पूछा कि तुमने यह कौनसा कार्य शुरू किया है ? (६९) अनेक प्रकार के पशु तुमने यहाँ पर क्यों बाँध रखे हैं और किसलिये ये बहुतसे ब्राह्मण यहाँ इकट्ठे हुए हैं। (७०) यज्ञका संचालन करनेवाले ब्राह्मणने कहा कि क्या तुम नहीं जानते कि मरुत् राजाने परलोकके लिये महान् धर्मप्रदायी ऐसा यह यज्ञ शुरू किया है । (७१) चतुर्मुख ब्रह्माने जिसका उपदेश दिया है ऐसा वेदशास्त्रमेंसे निष्पन्न तथा महान् पुण्यजनक यज्ञ ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य इन तीन वर्णोको करना चाहिए। (७२) बीचमें वेदिका बनाकर और मंत्रपूर्वक पशुओंको मारकर उनका हवन करना चाहिए। इससे देव तृप्त होते हैं। अतः जिसमें सोमपान किया जाता है ऐसे यज्ञ याग प्रयत्नपूर्वक करने चाहिए। (७३) यह शाश्वत धर्म है। योग द्वारा यह लोकमें प्रकट हुआ है। यह इन्द्रिय एवं मनको आनन्द देनेवाला है और मरने पर देवलोकका फल देता है। (७४) ऐसा कथन सुनकर प्रज्ञाशाली नारदने कहा कि आर्षवेदोंसे अनुमत जो यज्ञ है उसके बारेमें मैं कहता हूँ। तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो । (७५) शरीररूपी वेदिकामें ज्ञानरूपी घीसे अत्यन्त प्रज्वलित मनरूपी अग्नि कर्मरूपी वृक्षसे उत्पन्न मलरूपी काष्ठके समूहको जलाती है। (७६) क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और मोह-ये पशु हैं। इन्द्रियोंके साथ इनका वध करना चाहिए। (७७) सत्य, क्षमा, अहिंसा, सुयोग्य दक्षिणाका दान, सम्यग्दर्शन, चारित्र, संयम और ब्रह्मचर्य आदि देव हैं। (७८) सच्चे वेदोंमें निर्दिष्ट यह यज्ञ जिनेश्वर भगवानोंने कहा है। विशेष मनः प्रणिधानपूर्वक यदि यह किया जाय तो उत्तम निर्वाणरूप फल देता है। (७९) और लोही, चरबी एवं मांसके रसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy