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________________ ११.९३] ११. मरुयजण्णविद्धंसण-जणवयाणुरागाहियारो १२५ जे पुण करेन्ति जन्नं, अणारिसं अलियवेयनिष्फण्णं । मारेऊण पसुगणे, रुहिर-वसा-मंसरसलोला ॥ ८० ॥ ते पावकम्मकारी, वाहा विव निद्दया निरणुकम्पा । मरिऊण जन्ति निरय, अज्जेन्ति य दीहसंसारं ॥ ८१ ।। नं नारएण भणिया, सबै वि य बम्भणा परमरुट्टा । पहणेऊण पयत्ता, दढमुट्ठि-करप्पहारेहिं ॥ ८२ ॥ ते नारओ वि विप्पे, भुयबल-अइचडुलपण्हिपहरेहिं । वारेइ पययमणसो, संसयपरमं समणुपत्तो ॥ ८३ ॥ बहवेहि वेढिऊणं, गहिओ कर-चरण-अङ्गमङ्गेसु । पक्खी व पञ्जरत्थो, अवसीयइ नारओ धणियं ॥ ८४ ॥ एयन्तरम्मि पत्तो, दूओ दहवयणसन्तिओ तत्थ । अह पेच्छइ हम्मन्तं, विपहि य नारयं दीणं ॥ ८५ ॥ गहियं विप्पेहि तहिं. दट ठणं नारयं पभूएहिं । गन्तं कहेइ दओ. जन्ननिओगं दहमहस्स ॥८६ । जस्स सयासं सामिय !, विसज्जिओ हं तए नरिन्दस्स । तस्स बहुबम्भणेहि, हम्मन्तो नारओ दिवो ॥ ८७ ॥ तत्थाऽऽउलं नरिन्दं, नाऊण भउद्दुयसरीरोहं । एत्थागओ नराहिव, तुझं जाणावणट्टाए ॥ ८८ ॥ रुट्टो लङ्काहिवई, सुहडे पेसेइ साहणसमग्गे । गन्तूण तेहि सहसा, परिमुक्को नारओ विप्पो ॥ ८९ ॥ हणिऊण बम्भणगणे, भग्गो जन्नो य मेल्लिया वसवो । भणिया य सुत्तकण्ठा, जह पुण एयं न कारेह ॥ ९० ॥ अह नारओ वि एत्तो. बम्भणकरकढिणगाहपरिमुक्को । उप्पइऊणं सहसा, पेच्छइ लङ्काहिवं तुट्टो ॥ ९१ ॥ कल्लाणं होउ तुम, विउलं मा हणसु बम्भणे पावे ! पियजीविए वराए, भमन्तु पुहई जहिच्छाए ॥ ९२ ॥ तापसविप्रयोरुत्पत्तिः निमुणेहि ताव सुपुरिस !, उप्पत्ती तावसाण एगमणो । उसभजिणस्स भगवओ, पबज्जादेसयालम्मि ।। ९३ ॥ लुब्ध जो मनुष्य पशुओंको मारकर अनार्ष एवं झूठे वेदोंमेंसे निष्पन्न यज्ञ करते हैं वे पाप-कर्म करनेवाले तथा शिकारीकी भाँति निर्दय एवं अनुकम्पाशून्यं मर करके नरकमें जाते हैं और दीर्घसंसार उपार्जन करते हैं। (८०-८१) इस प्रकार नारदके कहने पर सव ब्राह्मण अत्यन्त रुष्ट हो गये और मजबूत मुठ्ठी व हाथके प्रहारोंसे उसे मारने लगे। (२) मनसे सावधान नारदने भी अपने जीवनके बारेमें अत्यन्त संशय उत्पन्न होने पर अपनी भुजाओंके सामर्थ्यसे तथा खूब स्फुर्तीके साथ किये जानेवाले पादप्रहारोंसे उन ब्राह्मणोंको रोका । (८३) किन्तु बहुतसे ब्राह्मणोंने उसे घेरकर हाथ पैर तथा अन्यान्य अंगोंसे पकड़ लिया। पिंजरेमें बन्द पक्षीकी तरह वह नारद अत्यन्त दुःखी हुआ । (४) इस बीच दशवदन द्वारा भेजा गया दूत वहाँ आ पहुँचा। उसने ब्राह्मणों द्वारा पीटे जाते और दीन नारदकों देखा । (८५) बहुतसे ब्राह्मणों द्वारा पकड़े हुए नारदको वहाँ देखकर वह दूत वापस गया और दशमुखसे यज्ञका समाचार कहने लगा कि, हे स्वामी! आपने जिस राजाके पास मुझे भेजा था उसके समक्ष ही बहुतसे ब्राह्मणों द्वारा पीटे जाते नारदको मैंने देखा । (८६-८७) हे राजन् ! वहाँ राजाको आकुल देखकर भयभीत शरीरवाला मैं आपको जतानेके लिये यहाँ पर वापस आया हूँ। (८८) यह सुनकर रुष्ट लंकाधिपति रावणने सैन्यके साथ सुभट भेजे। वहाँ सहसा पहुँचकर उन्होंने ब्राह्मग नारदको मुक्त किया। (८९) ब्राह्मणोंको मार-पीटकर उन्होंने यज्ञको तोड़फोड़ दिया, पशुओंको छोड़ दिया और यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणोंसे कहा कि ऐसा फिर मत करना । (९०) इसके पश्चात् ब्राह्मणोंके हाथोंकी मजबूत पकड़मेंसे मुक्त नारद भी तुष्ट होकर एकदम उड़ा और लंकाधिप रावणसे मिला (९१) वहाँ आशीर्वाद देते हुए उसने कहा कि तुम्हारा कल्याण हो, पापी ब्राह्मणोंको बहुत मत मारना। जिनको अपना जीवन प्रिय है ऐसे उन बेचारोंको इच्छानुसार पृथ्वी पर घुमने देना । (९२) तापसोंकी उत्पत्तिका वर्णन हे सत्पुरुष ! तापसोंकी उत्पत्तिके बारेमें ध्यान लगाकर तुम सुनो। भगवान् ऋषभ जिनेश्वरने जिस समय प्रवज्या कहने लगा बहुतसे नारा भेजा गया कहने लगा कि, राजन् ! वहाँ राजाका देयके साथ सुभट भेजे । १० Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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