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११. मरुयजण्णविद्धंसण-जणबयाणुरागाहियारो कालन्तरेण केणइ, विहरन्ता साहवो तमुद्देसं । पत्ता तावसनिलयं, तेहि य परिवारिया तुरियं ॥ ५१ ।। दिन्नासणोवविट्ठा, साहू पेच्छन्ति तत्थ बम्भरुई । महिला य तस्स कुम्मी, गुरुभारा पीणथणजुयला ॥ ५२ ॥ अह साहवेण भणियं, संसारसहावनाणियच्छेणं । हा! कहूँ कह जीवा, नचाविज्जन्ति कम्मेसु ? ।। ५३ ॥ चइऊण बन्धवजणं. गिहवासं चेव धम्मबुद्धीए । गहिओ तावसधम्मो, तह वि य सङ्ग न छडडेइ ॥ ५४॥ नह छड्डिऊण भत्तं, पुणरवि लोगो न भुञ्जइ अभक्खं । तह छड्डिऊण कम्म,न करेन्ति जई अकरणिज्जं ॥ ५५ ॥ चइऊण महिलियं जो, पुणरवि सेवेइ लिङ्गरूवेणं । सो पावमोहियमई, दीहं अज्जेइ संसारं ॥ ५६ ॥ सोऊण समणवयणं, पडिबुद्धो तक्खणेण बम्भरुई । जिणदिक्खं पडिवन्नो, सबं सङ्गं पयहिऊणं ॥ ५७ ॥ कुम्मी वि सुणिय धम्मं, मोत्तण कुदिट्टि जिणसुइमईया । अह दारयं पसूया, दसमे मासे अरण्णम्मि ॥ ५८ ॥ संभरिय साहुवयणं, असासयं जाणिऊण मणुयत्तं । संवेगसमावन्ना, कुम्मी चिन्तेइ हियएणं ॥ ५९ ॥ रणे समुद्दमज्झे, जलणे गिरिसिहर-कन्दरत्थं वा । रक्खन्ति पयत्तेणं, पुरिसं निययाइँ कम्माइं ॥ ६० ॥ गहियाउहेहि नइ वि हु, रक्खिज्जइ पञ्जरोयरत्थो वि । तह विहु मरइ निरुत्तं, पुरिसो संपत्थिए काले ॥ ६१ ॥ एवं सा परमत्थं, मुणिऊण विमुच्च बालयं रणे । आणत्था लोगपुरं, गन्तुं अज्जाएँ पासम्मि ॥ ६२॥ अह इन्दमालिणीए, पबइया तिबजायसंवेगा । काऊण समाढत्ता, तवचरणं तम्गयमईया ॥ ६३ ॥ अह सो वि तत्थ बालो, आगासत्थेहि जम्भयगणेहिं । दट्ठूण य अवहरिओ, पुत्तो इव पालिओ नेउ ॥ ६४ ॥ सत्थाणि सिक्खवेउ, दिन्ना आगासगामिणी विज्जा । संपुण्णजोवणो सो, जाओ जिणसासणुज्जत्तो ॥ ६५ ॥
कुछ समयके पश्चात् उस प्रदेशमें विहार करते हुए साधु उस तापसके आवासमें आ पहुँचे। वहाँ उन्होंने विश्राम किया। (५१) आसन दिये जाने पर साधु बैठे। वहाँ उन्होंने ब्रह्मरुचिको तथा गर्भवती व मोटे मोटे स्तनोंवाली उसकी स्त्री कर्मीको देखा । (५२) इसके पश्चात् संसारके स्वभावको यथार्थ रूपसे जाननेवाले एक साधुने कहा कि, अफसोस है! किस प्रकार
व कर्मोसे नचाये जाते हैं ? (५३) बन्धुजन तथा गृहवासको छोड़कर धर्मबुद्धिसे तापसधर्म अंगीकार किया, फिर भी आसक्ति नहीं छटती । (५४) जिस प्रकार भक्ष्यको छोड़कर लोग पुनः अभक्ष्य नहीं खाते, उसी प्रकार कर्मका परित्याग का यति अकरणीय कर्म नहीं करते । (५५) स्त्रीका त्याग करके जो लिंगधारी (वेशधारी साधु) पुनः स्त्रीका उपभोग करता है वह पापसे मोहित मतिवाला दीर्घ संसार उपार्जित करता है। (५६) साधुका ऐसा उपदेश सुनकर ब्रह्मरूचि तत्काल प्रतिबोधित हुआ। सब प्रकारके संगका परित्याग करके उसने जिनदीक्षा अंगीकार की। (५७) कुर्मी भी धर्मका श्रवण करके मिथ्याष्टिका त्यागकर जिनोपदिष्ट धर्ममें श्रद्धालु वनी। बादमें दसवें महीने में उसने अरण्यमें पुत्रको जन्म निवार) साधके उपदेशको याद करके और मानवजन्मको अशाश्वत जानकर वैराग्ययुक्त कूर्मी मनमें ऐसा विचारने लगी कि अरण्यमें, समुद्र के बीच, आगमें और पर्वतके शिखर या कन्दरामें रहे हुए पुरुषकी रक्षा उसके अपने कर्म प्रयत्नपूर्वक करते हैं। (५९-६०) भले ही शस्त्रधारियोंके द्वारा रक्षित हो अथवा पिंजरे में बंद हो तथापि काल प्राप्त होने पर मनष्य अवश्य ही मरता है। (६१) ऐसा परमार्थ सोचकर भगवान्की आज्ञामें स्थित उसने बालकको अरण्य में बोड दिया और स्वयं लोकपुर नामके नगरमें आर्योके पास गई। (६२) वहाँ तीव्र वैराग्यवाली उसने इन्द्रमालिनी आर्याके पास दीक्षा ली। अपनी गुरुणीमें श्रद्धा रखनेवाली वह तपश्चर्या करने लगी। (६३) '
उधर उस बालकको आकाशमें स्थित जृम्भक नामक देवोंके समूहोंने देखा। उसे देखकर के नीचे आये और ले जाकर पुत्रकी भाँति उसका पालन करने लगे। (६४) उसे शास्त्र सिखलाये और आकाशगामिनी विद्या दी। सम्पूर्ण यौवन में आया हुआ वह जिनशासनका उद्योत करनेवाला हुआ। (६५) अपनी माताको देखकर और अंग-प्रत्यंग के चिह्नोंसे उसे
१. पावेइ-प्रत्य।
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