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पउमचरियं
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सरिऊण पुबजम्मं, नैणवयधिक्कारदूसहं वयणं । वेरपडिउञ्चणत्थे, बम्भणरूवं तओ बहुकण्ठसुतधारी, छत्त-कमण्डलु-गणित्तियाहत्थो । चिन्तेइ अलियसत्थं, हिंसाधम्मेण सोऊण तं कुसत्थं, पडिबुद्धा तावसा य विप्पा य । तस्स वयणेण जन्नं, करेन्ति बहुजन्तुसंबाहं ॥ गोमेहनामधेए, नन्ने पायाविया सुरा हवइ । भणइ अगम्मार्गमणं, काय नत्थि दोसो त्थ ॥ पिइमेह - माइमेहे, रायसुए आसमेह - पसु मेहे । एएसु मारियबा, सएसु नामेसु जे जीवा ॥ जीवा मारेयबा, आसवपाणं च होइ कायबं । मंसं च खाइयबं, जन्नस्स विही हवइ एसा ॥ एवं विमोहयन्तो, भणइ जणं रक्खसो महापावो । तिविहं च परिग्गहिओ, तस्सुवएसो अभविएहिं ॥ हिंसाजन्नं तु इमं, सेणिय ! जे परिहरन्ति भवियनणा । ते जन्ति देवलोगं, निणवरधम्मुज्जयमईया ॥ तावच्चिदहवयणो, रायपुरं पत्थिओ जणसमिद्धं । मरुओ त्ति नाम राया, जत्थऽच्छइ जन्नवाडत्थो ॥ नन्नारम्भं सुणिऊण बम्भणा तत्थ आगया बहवे । पसवो य विविहरूवा, बद्धा अच्छन्ति दीणमुहा गयणेण वच्चमाणो, पेच्छइ तं नारओ नणसमूहं । परमकुतूहलभावो, तं चिय नयरं समोइण्णो ॥
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कुणइ ॥ संजुत्तं ॥
[ ११.३८
नारदस्वरूपम् -
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पुच्छइ मगहाहिबई, भयवं ! को नारओ ? सुओ कस्स ? । के व गुणा से अहिया ? कहेहि मे कोउयं गुरुयं ॥ भणइ तओ गणनाहो, विप्पो नामेण अत्थि बम्भरुई । महिला से वरकुम्मी, सा गुरुभारा समणुनाया ॥
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धारण किया। (३८) गलेमें अनेक सूत्रोंको धारण करनेवाला वह हाथमें छत्र कमण्डलु रुद्राक्षमाला धारण करके हिंसाधर्मसे युक्त मूठे शास्त्रके बारेमें सोचने लगा । (३९) उस कुशास्त्रको सुनकर प्रतिबोधित तापस और ब्राह्मण उसके उपदेशके अनुसार अनेक जन्तुओंका जिसमें नाश किया जाता है ऐसा यज्ञ करने लगे । (४०) गोमेध नामक यज्ञमें सुरा पिलाई जाती है और गम्यागमन ( परस्त्रीसेवन) करना चाहिए और इसमें दोष नहीं है ऐसा वह कहने लगा । (४१) पितृमेध, मातृमेध, राजसूय, अश्वमेध, पशुमेध इन इन यज्ञोंमें यज्ञके नामसे सूचित पिता, माता आदि जीव मारने चाहिए। (४२) उन यज्ञोंमें जीवोंकी हत्या करनी चाहिए, मद्यपान करना चाहिए और मांस खाना चाहिए । यज्ञकी यह तो विधि है । (४३) इस प्रकारसे लोगोंको मूढ़ करता हुआ वह महापापी राक्षस उपदेश देता था। अभव्य जीवोंने उसका उपदेश मन-वचनकायासे अंगीकार किया । (४४) गौतम गणधर कहते हैं कि हे श्रेणिक ! भव्य और जिनवरके धर्मसे उज्ज्वल बुद्धिवाले जो जीव हिंसामय यज्ञका परित्याग करते हैं वे देवलोकमें उत्पन्न होते हैं । (४५)
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लोगों से समृद्ध राजपुरका मरुत नामका राजा जिस यज्ञवाटमें स्थित था वहाँ आनेके लिये दशवदनने प्रस्थान किया । (४६) यज्ञके बारे में सुनकर वहाँ बहुतसे ब्राह्मण आये हुए थे और जिनके मुँह परसे दीनता टपक रही थी ऐसे बहुत प्रकारके पशु वहाँ बाधे हुए थे । (४७) आकाशमार्गसे जाते हुए नारदने उस जनसमूहको देखा, अतः अत्यन्त कुतूहलवश वह उस नगर में उतरा । ( ४ )
नारदका जीवनवृत्तान्त
मगधराज श्रेणिक गौतम गणधरसे पूछते हैं कि, हे भगवन् ! यह नारद कौन है ? किसका पुत्र है ? कौन-कौन गुणों से वह विशिष्ट है ? मुझे इसके बारेमें जाननेका बड़ा भारी कौतुक हो रहा है, अतः आप कहें। (४६) इस पर गणनाथ गौतमने कहा कि ब्रह्मरुचि नामका एक ब्राह्मण था । उसकी पत्नीका नाम वरकूर्मी था । वह सगर्भा हुई । (५०)
१. जण धिक्कारेण दूसहं मु० । २. गम्मं - प्रत्य० ।
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