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११. ३७ ]
११. मरुयजण्णविद्धंसण-जणवयाणुरागाहियारो सेसा अणुबयधरा, गिहिधम्मपरा हवन्ति जे मणुया । पुत्ताइभेयजुत्ता, अतिहिविभागे य जन्ने य ॥ २४ ॥ एत्तो अजेसु जन्नो, कायबो नारओ भणइ एवं । ते पुण अजा अविज्जा, जवाइयंकूरपरिमुक्का ॥ २५ ॥ तो पबएण भणियं, वुचन्ति अजा पसू न संदेहो । ते मारिऊण कीरइ, जन्नो एसा भवइ दिक्खा ॥ २६ ॥ तो नारएण भणिओ. पवयओ मा तुम अलियवादी । होऊण नासि नरय, दुक्खसहस्साण आवासं ॥ २७ ॥ भणइ तओ पबयओ, अस्थि बसू अम्ह एत्थ मज्झत्थो । एगगुरुगहियविज्जो, तस्स य वयणं पमाणं मे ॥ २८ ॥ अह पवएण य लह, माया वीसज्जिया वसुसयासं । भणइ पहु ! पक्खवाय, पुत्तस्स महं करेजासि ॥ २९ ॥ अह उग्गयम्मि सूरे, पवयओ नारओ य जणसहिया । पत्ता नरिन्दभवणं, जत्थऽच्छइ वसुमहाराया ॥ ३० ॥ भणिओ य नारएणं, वसुराया सच्चवाइणो तुम्हे । जं गुरुजणोवइट्ट, तं चिय बयणं भणेज्जाहि ॥ ३१ ॥ जइ वीहिया अविज्जा, वुचन्ति अजा पसू गुरुवइट्टा । एयाणं इक्कयर, भणाहि सच्चेण सत्तो सि ॥ ३२ ॥ अह भणइ वसुनरिन्दो, तच्चत्थं पबएण उल्लवियं । अलियं नारयवयणं, न कयाइ सुयं गुरुसयासे ॥ ३३ ।। एवं च भणियमेत्ते, फलिहामयआसणेण समसहिओ । धरणिं वसू पविट्ठो, असच्चवाई सहामज्झे ॥ ३४ ॥ पुढवी जा सत्तमिया, महातमा घोरवेयणाउत्ता । तत्थेव य उववन्नो, हिंसावयणालियपलावी ॥ ३५ ॥ धिद्धि ! ति अलियवाई. पबयय-वसू जणेण उग्घुटुं । पत्तो च्चिय सम्माणं, तत्थेव य नारओ विउलं ॥ ३६ ।। पावो वि हु पबयओ, जणधिक्कारेण दूमियसरीरो । काऊण कुच्छियतवं, मरिऊणं रक्खसो जाओ ॥ ३७ ।।
बाक़ीके जो मनुष्य होते हैं वे अणुव्रतको धारण करनेवाले, गृहस्थधर्ममें रत, पुत्र आदिके भेदसे युक्त तथा अतिथिसंविभाग एवं यज्ञपरायण होते हैं । (२४) नारदने आगे चलकर ऐसा कहा कि 'अज' द्वारा यज्ञ करना चाहिए और वे 'अज' हैं जनन शक्तिसे रहित तथा छिलकेसे रहित जौ आदि । (२५) इस पर पर्वतने कहा कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि अज पशुको ही कहते हैं। उन्हें मारकर यज्ञ किया जाता है और यही दोक्षा होती है। (२६) तब नारद ने कहा कि हे पर्वतक! तुम असत्यभाषी मत बनो। ऐसा कहकर हजारों दुःखोंके आवासरूप नरकमें तुम जाओगे। (२७) इस पर पर्वतकने कहाकि समान गुरुसे विद्या ग्रहण करने वाला वसु है। वह इस बारेमें हमारा मध्यस्थ बने। उसका बचन मेरे लिये प्रमाणभूत है। (२८)
इसके पश्चात् पर्वतने शीघ्र ही अपनी माताको वसु राजाके पास भेजा। वहाँ जाकर उसने कहा कि, हे राजन् ! मेरे पुत्रका आप पक्षपात करें। (२९) दूसरे दिन सूर्योदय होनेपर पर्वत और नारद जहाँ वसु महाराजा थे उस राजभवनमें लोगोंके साथ आ पहुँचे । (३०) नारद ने कहा कि, हे वसुराजा! तुम सत्यवादी हो ! गुरुजीने जैसा उपदेश दिया था वैसा ही कथन तुम करना । (३१) गुरुजीके द्वारा उपदिष्ट अजका अर्थ अंकुरजननमें असमर्थ ऐसे जो या पशु इनमेंसे कोई एक है। तुम सत्यवादी हो, अतः सचसच कहो। (३२) इसपर वसु राजाने कहा कि पर्वतने यथार्थ कहा है। नारदका कथन असत्य है। मैंने गुरुजीके पाससे वैसा अथे कभी नहीं सुना । (३३) ज्यों हो उसने ऐसा कहा, त्यों ही वह वसु राजा स्फटिकमय आसनके साथ पृथ्वीमें समा गया और सभाके बीच असत्यवादी सिद्ध हुआ । (३४) हिंसाका कथन करनेवाला और असत्यप्रलापी वह घोर वेदनासे युक्त तथा महान्धकारसे पूर्ण जो सातवाँ नरक है उसमें उत्पन्न हुआ। (३५)
'झूठे पर्वत और वसुको धिक्कार है, धिक्कार है' ऐसी लोगोंने उद्घोषणा की। वहीं राजसभामें नारदने विपुल सम्मान प्राप्त किया। (३६) लोगोंके धिक्कारसे पीड़ित शरीरवाला पापी पर्वत भी कुत्सित तप करके मरनेके पश्चात् राक्षस हुआ। (३७) अपने पूर्व जन्मका तथा लोगोंके असह्य धिक्कार वचन का स्मरण करके वैरवश प्रतिवंचनाके लिए उसने ब्राह्मणरूप
१. सुत्ताइ-प्रत्य.।
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