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पउमचरियं
[११.९खीरकयम्बो ति गुरू, सत्थिमई हवइ तस्स वरमहिला । पुत्तो वि हु पवयओ, नारयविप्पो हवइ सीसो ॥ ९ ॥ अह अन्नया कयाई, सत्थं आरण्णयं वणुद्देसे । कुणइ तओ अज्झयणं, सीससमग्गो उवज्झाओ ॥ १० ॥ अह बम्भणस्स पुरओ, आगासत्थेण तेण साहूर्ण । जीवाण दयट्टाए, भणियं अणुकम्पजुत्तेणं ॥ ११ ॥ चउसु वि जीवेसु सया एक्को वि हुनरगभाविओ भणिओ। सुणिऊण उवज्झाओ, खीरकयम्बो तओ भीओ ॥ १२ ॥ वीसजिया सहाया, निययघरं तो लहुं समल्लीणा । भणिओ सस्थिमईए, पुत्त! पिया ते न एत्थाऽऽओ ॥ १३ ॥ तेणं तीए सिटुं, एही ताओ अवस्स दिवसन्ते । तइंसणूसुयमणा, अच्छइ मम्गं पलोयन्ती ॥ १४ ॥ अथमिओ चिय सूरो, तह वि घरं नागओ उवज्झाओ। सोगभरपीडियङ्गी, सत्थिमई मुच्छिया पडिया ॥ १५ ॥ आसन्था भणइ तओ, हा! कट्ठ मन्दभागधेज्जाए । किं मारिओ सि दइओ!. एगागी कं दिसं पत्तो? ॥ १६ ॥ किं सबसङ्गरहिओ. पवइओ तिबजायसंवेगो! । एवं विलवन्तीए, निसा गया दुक्खियमणाए ॥ १७॥ अरुणुग्गमे पयट्टो, पबयओ गुरुगवेसणट्ठाए । पेच्छइ नईतडत्थं, पियरं समणाण मज्झम्मि ॥ १८ ॥ निम्गन्थं पवइयं, ठूण गुरुं कहेइ जणणीए । सुणिऊण अइविसण्णा, सत्थिमई दुक्खिया जाया ॥ १९ ॥ अह नारओ वि तइया, गुरुपति दुक्खियं सुणेऊणं । आगन्तूण पणाम, करेइ संथावणं तीए ॥ २०॥ तइया जियारिराया, पबइओ बसुसुयं ठविय रजे । आगासनिम्मलयरं, फलिहमयं आसणं दिवं ॥ २१ ॥ पवयय-नारयाणं, तच्चत्थनिरूवणी कहा जाया । अह नारएण भणियं, दुविहो धम्मो जिणक्खाओ ॥ २२ ॥ पढममहिंसा सच्चं, अदत्तपरिवज्जणं च बभं च । सबपरिम्गहविरई, महबया होन्ति पञ्च इमे ॥ २३ ॥
मार्याका नाम स्वस्तिमती था। पर्वतक नामका उसका अपना पुत्र तथा नारद नामक ब्राह्मण-ये दो उसके शिष्य थे। (९) एक दिन अपने समग्र शिष्योंके साथ उपाध्याय वनप्रदेशमें आरण्यक शास्त्रका अध्ययन कर रहे थे ! (१०) उस समय आकाशमें स्थित एक दयालु साधुने जीवों पर अनुकम्पा करनेके लिए कहा । (११) उसने कहा कि तुम चारों प्राणियोंमेंसे एक नरक गामी है। यह सुनकर उपाध्याय क्षीरकदम्ब भयभीत हो गया। (१२) उसने शिष्योंको अपने अपने घर भेज दिया। जल्दी ही आये हुए पुत्रको स्वस्तिमतोने पूछा कि रे पुत्र, तेरे पिता यहाँ क्यों नहीं आये ? (१३) उससे तब उसने कहा कि सन्ध्याके समय पिताजी अवश्य आएँगे। इस पर अपने पतिके दर्शनके लिए उत्सुक मनवाली वह उसका मार्ग देखती रही । (१४) सूर्यास्त होने पर भी उपाध्याय जब घर पर न आये, तब शोकके भारसे पीडित स्वस्तिमती मूर्छित होकर गिर पड़ी। (१५) होशमें आनेपर वह कहने लगी कि 'अफसोस है ! मुझ मन्दभाग्याको मारकर, प्रिय, तम एकाकी किस तरफ चले गये हो ? क्या तीव्र वैराग्य उत्पन्न होनेसे सब प्रकारकी आसक्तिओंसे मुक्त होकर प्रत्रज्या ली है-इस प्रकार विलाप करती हुई उस दुःखी मनवाली स्वस्तिमतीकी रात बीती । (१६-१७) अरुणोद्म होने पर पर्वतक अपने पिताकी खोज करने लगा। उसने नदीके तट पर श्रमणोंके बीच अपने पिताको देखा। (१८) पिताने निन्थ दीक्षा अंगीकार की है ऐसा देखकर उसने अपनी माता से कहा। यह सुनकर स्वस्तिमती अत्यन्त खिन्न और दुःखी हो गई । (१९) तब अपने गुरुकी पत्नी दुःखित है ऐसा सुनकर नारद आया और प्रणाम करके उसे धैर्य बँधाने लगा। (२०)
र जितारिराजाने राज्यके ऊपर अपने वसु नामक पुत्रको स्थापित करके दीक्षा ले ली। वसु राजाका आसन आकाशसे भी अत्यन्त निर्मल, स्फटिकमय तथा दिव्य था। (२१)
एक बार पर्वत और नारदके बीच तत्त्व एवं उसके अर्थका निरूपण करनेवाला वार्तालाप हो रहा था। उस समय नारदने कहा कि जिनवर द्वारा उपदिष्ट धर्म दो प्रकारका है । (२३) उनमेंसे प्रथम जो साधुका धर्म है उसमें अहिंसा, सत्य, अदत्तपरिवर्जन (अचौर्य), ब्रह्मचर्य और सर्व प्रकारके परिग्रहका त्याग (अपरिग्रह) ये पाँच महारत आते हैं। (२३)
१. रावणस्स-प्रत्य० । २. पिईए-मु० ।
इस प्रकार विरका चले गये हो क्या
पर पर्वतक अपने
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