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११.८]
११. मरुयजण्णविद्धंसण-जणवयाणुरागाहियारो एवं सहस्सकिरणस्स विचेट्ठियं जे, बीयं सुणन्ति अणरण्णनराहिवस्स ।
ते उत्तमेसु भवणेसु सुहोवगाढा, देवा भवन्ति विमलोयरकन्तिजुत्ता ॥ ८८ ॥ ॥ इय पउमचरिए दहमुह-सुग्गीवपत्थाण-सहस्पकिरण-अणरण्णपव्वजाविहाणो नाम दसमो उद्देसओ समत्तो ।।
११. मरुयजण्णवि«सण-जणवयाणुरागाहियारो अह रावणो नरिन्दो, जे जे पुहईयलम्मि विक्खाया । ते ते निणिऊण वसे, ठवेइ विज्जाबलसमग्गो ॥ १॥ सबे काऊण वसे, महिवाले विविहदेससंभूए । रह-गय-तुरङ्ग-वाहण-पभूयजोहाउलाडोवे ॥ २ ॥ कारेड जिणहराणं, समारणं जुण्ण-भग्ग-पडियाणं । पूया य बहुवियप्पा, विरएइ जिणिन्दपडिमाणं ॥ ३ ॥ जिणवरपडिकुट्ठा पुण, विद्धंसइ पूयई य समणवरे । एवं परिहिण्डमाणो, पुधदिसिं पत्थिओ नवरं ॥ ४ ॥ अह पत्तो नरवसहो, तेण सुओ रायपुरवरे नयरे । लोइयसत्थत्थरओ, उवउत्तो जन्नकम्मन्ते ॥ ५ ॥ यज्ञोत्पतिःसुणिऊण जन्नवयणं, पुच्छइ मगहाहिवो मुणिपसत्थं । जन्नस्स समुप्पत्ती, कहेहि भयवं! परिफुडं मे ॥ ६ ॥ अह भाणिउं पयत्तो, अणयारो सुमहुराएँ वाणीए । आसि अओज्झाहिवई, इक्खागुकुलुब्भवो राया ॥ ७॥ नामेण महासत्तो, अनिओ भज्जा य तस्स सुरकन्ता । पुत्तो य वसुकुमारो, गुरुसेवाउज्जयमईओ ॥ ८ ॥
इस प्रकार जो लोग एक सहस्रकिरणका तथा दूसरा अनरण्य राजाका चरित सुनते हैं वे उत्तम देवलोकमें सबसे सम्पन्न तथा निर्मल एवं उदार कान्तिसे युक्त देव होते हैं। (८) । पद्मचरितमें 'दशमुख एवं सुग्रीवका प्रस्थान तथा सहरू किरण एवं अनरण्यकी प्रव्रज्याका विधान' नामक दसवाँ उद्देश समाप्त हुआ।
११. मरुत्के यज्ञका विध्वंस तथा जनपदोंका रावणके प्रति अनुराग इस धरातल पर जो जो विख्यात राजा थे उन्हें जीतकर विद्या एवं बलशाली रावणने अपने वशमें कर लिया। (१) रथ, हाथी, घोड़े तथा दूसरे वाहन एवं योद्धाओंके बहुतसे दलोंके आडम्बरसे युक्त और विविध देशोंमें उत्पन्न सष राजाओंको वशमें करके उसने जीर्णशीर्ण एवं गिरे हुए जिनमन्दिरोंका जीर्णोद्धार करवाया तथा जिनेश्वरदेवोंकी प्रतिमाओंकी अनेक प्रकारसे पूजा की। (२-३) जिनवरके प्रति जो क्रुद्ध थे उनका उसने नाश किया और मुनिवरेण्योंकी पूजा की। इस प्रकारसे राजा रावणने पूर्वदिशाकी ओर प्रयाण किया। (४) वहाँ पहुँचकर उस नरश्रेष्ठ रावणने सुना कि राजपुर नगरमें वहाँका राजा लौकिकशास्त्र एवं उसके अर्थमें रत है तथा यज्ञकर्ममें उद्युक्त रहता है । (५) यज्ञकी उत्पत्तिकी कथा—नारद-पर्वत संविवाद
_ 'यज्ञ' शब्द सुनकर मगधनरेशने मुनियों में उत्तम ऐसे गौतम गणधरसे पूछा कि, हे भगवन् ! यज्ञकी उत्पत्तिके बारेमें आप मुझे विशद रूपसे कहें । (६) यह सुनकर अनगार गौतम स्वामीने मधुरवाणीमें कहा कि इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न और अत्यन्त शक्तिशाली अजित नामका राजा अयोध्याका अधिपति था। उसकी भार्याका नाम सुरकान्ता था और गुरुकी सेवामें जिसका मन लगा रहता था ऐसा वसुकुमार नामका पुत्र था। (७-८) गुरुका नाम क्षीरकदम्ब और उसकी उत्तम
१. यरभत्तिजुत्ता-प्रत्यः ।
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