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पउमचरियं
[९.४१. काऊण पावकर्म, एरिसय भोगकारणट्ठाए । नरय-तिरिएसु दुखं, भोत्तई दीहकालम्मि ॥ ४१ ॥ पुवं मए पइन्ना, आरूढा साहसन्नियासम्मि । मोत्तण जिणवरिन्द, अन्नस्स थुई न कायबा ॥ ४२ ॥ न करेमि समयभङ्ग, न य जीवविराहणं महाजुझं । गिण्हामि निणुद्दिट्ट, पबजं सङ्गपरिहीणं ॥ ४३ ॥ वरनारिथणयडोवरि, जे हत्थाऽलिङ्गणुज्जया मज्झं । ते न य करेन्ति एत्तिय, अन्नस्स सिरञ्जलिपणामं ॥ ४४ ॥ सद्दावेऊण तओ, सुग्गोवं भणइ वच्छ ! निसुणेहि । तस्स करेहि पणाम, मा वा रज्जे मए ठविओ ॥ ४५ ॥ ठविऊण कुलाधार, सुग्गीवं उज्झिऊण गिहवासं । निक्खन्तो चिय वाली, पासे मुणिगयणचन्दस्स ॥ ४६ ॥ सुद्धक्कभावनिरओ, संजम-तव-नियमगहियपरमत्थो । अन्नोन्नजोगजुत्तो, कम्मक्खयनिज्जरट्ठाए ॥ ४७ ॥ चारित्त-नाण-दसण-निम्मलसम्मत्तमोहपरिमुक्को । विहरइ मुणिवरसहिओ, गामा-ऽऽगरमण्डियं वसुह ॥ १८ ॥ भुञ्जइ पाणनिमित्तं, पाणे धारेइ धम्मकरणत्थं । धम्मो मोक्खस्स कए, अज्जेइ सया अपरितन्तो ॥ ४९ ॥ सुग्गीवो वि हु कन्नं, सिरिप्पभं देइ रक्खसिन्दस्स - किक्किन्धिमहानयरे, करेइ रजं गुणसमिद्धं ॥ ५० ॥ . विज्जाहरमणुयाणं, कन्नाओ रूवनोबणधरीओ । अक्कमिय विक्कमेणं, परिणेइ दसाणणो ताओ ॥ ५१ ।। निच्चालोए नयरे, निच्चालोयस्स खेयरिन्दस्स । रयणावलि त्ति दुहिया, सिरिदेवीगन्भसंभूया ॥ ५२ ॥ तीए विवाहहेउं, पुप्फविमाणट्टियस्स गयणयले । वच्चन्तस्स निरुद्धं, जाणं अट्टावयस्सुवरि ॥ ५३ ॥ दट्ठूण अवच्चन्तं, पुप्फविमाणं तओ परमरुट्ठो । पुच्छइ रक्खसनाहो, मारीइ ! किमेरिसं नायं ? ॥ ५४ ॥
भोगके लिये ऐसा पाप-कर्म करनेसे नरक एवं तिथंच गतिमें दीर्घकाल पर्यन्त दुःख भोगना पड़ता है। (४९) पहले एक साधुके पास मैंने एक प्रतिज्ञा की थी कि जिनवरेन्द्रको छोड़कर मैं किसी अन्यकी स्तुति नहीं करूँगा। (४२) मैं अपनी प्रतिज्ञाका भंग भी नहीं करूँगा और जीवोंका नाश करनेवाला महायुद्ध भी नहीं करूँगा, अतः मैं तो जिनेश्वर भगवान् द्वारा उपदिष्ट सब प्रकारकी आसक्तियोंसे रहित प्रव्रज्या अंगीकार करता हूँ । (४३) मेरे जो हाथ उत्तम स्त्रियोंके स्तनतटके ऊपर आलिंगन करने में उत्सुक रहते थे उनसे ही अब मैं जो आसक्ति नहीं रखते उन्हें सिरपर अंजलि धारण करके प्रणाम करता हैं। (४४) इसके पश्चात् सुग्रीवको बुलाकर उसने कहा कि हे वत्स ! मैंने तुम्हें राज्यपर स्थापित किया है। अब तुम उसे (रावणको) प्रणाम करो या नहीं यह तुम्हारी इच्छाकी बात है। (४५) अपने कुलके आधाररूप सुग्रीवको राज्यपर स्थापित करके और गृहवासका त्याग करके वालीने गगनचन्द्र नामक मुनिके पास दीक्षा अंगीकार की। (४६)
एकमात्र शुद्ध भावमें निरत, संयम, तप एवं नियम द्वारा परमार्थका ज्ञाता, कर्मके क्षय एवं निर्जराके लिए चित्तवृत्तिनिरोधरूप विभिन्न प्रकारके योगसे युक्त, चरित्र, ज्ञान, दर्शन एवं निर्मल सम्यक्त्वसे सम्पन्न तथा मोहसे विमुक्त वह वाली मुनिवरके साथ ग्राम समूहसे व्याप्त पृथ्वी पर परिभ्रमण करने लगा। (४७.४८) वह प्राणोंकी रक्षाके लिए भोजन करता था, धर्माचारके लिए प्राणोंको धारण करता था और निर्विण्ण हुए बिना मोक्षके लिए सर्वदा धर्मका उपार्जन करता था। (४९) रावणका अष्टापद-गमन तथा वाली मुनि द्वारा पराभव
सुग्रीवने श्रीप्रभा नामकी कन्या राक्षसेन्द्र रावणको दी और महानगरी किष्किन्धिमें सुख, सदाचार आदि गुणोंसे समृद्ध ऐसा राज्य करने लगा। (५०) बलपूर्वक आक्रमण करके विद्याधर एवं मनुष्योंकी रूप व यौवनसे युक्त कन्याभोंके साथ दशाननने विवाह किया । (५१) नित्यालोक नामक नगरमें खेचरेन्द्र नित्यालोककी तथा श्रीदेवीके गर्भसे उत्पन्न रत्नावली नामकी लड़की थी। (५२) उसके साथ विवाहके निमित्त पुष्पकविमानमें बैठकर आकाश मार्गसे जाते हुए रावणका विमान अष्टापदके ऊपर रुक गया। (५३) जाते हुए विमानको इस प्रकार स्थगित देखकर अत्यन्त रुष्ट राक्षसनाथ पूछने लगा कि मारीचि, ऐसा क्यों हुआ? (५४) इस पर मारीचिने कहा कि, हे नाथ! सूर्यकी ओर अभिमुख
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