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९. वालिणिव्वाणगमणाहियारो अह साहिउँ पयत्तो, मारीई को वि नाह ! मुणिवसहो । तप्पइ तवं सुघोरं, सूराभिमुहो महासत्तो ॥ ५५ ॥ रावणस्य अष्टापदे अवतरणम्एयस्स पभावेणं, नाणविमाणं न जाइ परहुत्तं । अवयरह नमोकार, करेह मुणि पावमहणस्स ॥ ५६ ॥ ओयारिय विमाणं, पेच्छइ कविलासपवयं रम्मं । दूरुनयसिहरोह, मेहं पिव सामलायारं ॥ ५७ ॥ घणनिवह-तरुणतरुवर-कुसुमालिनिलीणगुमुगुमायारं । निज्झरवहन्तनिम्मल-सलिलोहप्फुसियवरकडयं ॥ ५८ ॥ कडयतडकिन्नरोरग-गन्धव्वुग्गीयमहुरनिग्धोसं । मय-महिस-सरह-केसरि-वराह-रुरुगयउलाइण्णं ॥ ५९॥ सिहरकरनियरनिग्गय-नाणाविहरयणमणहरालोयं । जिणभवणकणयनिम्मिय-उब्भासेन्तं दस दिसाओ ॥ ६०॥ अवइण्णो दहवयणो, अह पेच्छइ साहवं तहिं वाली । झाणपइट्टियभावं, आयावन्तं सिलावट्टे ॥ ६१ ।। वित्थिण्णविउलवच्छं. तवसिरिभरियं पलम्बभुयजुयलं । अचलियझाणारूढं, मेरुं पिव निच्चलं धीरं ॥ ६२ ॥ संभरिय पुबवेरं, भिउडि काऊण फरुसवयणेहिं । अह भणिऊण पवत्तो, दहवयणो मुणिवरं सहसा ॥ ६३ ॥ अइसुन्दरं कयं ते, तवचरणं मुणिवरेण होऊणं । पुबावराहजणिए, जेण विमाणं निरुद्ध मे ॥ ६४ ॥ कत्तो पबज्जा ते?, कत्तो तवसंजमो सुचिण्णो वि? । जं वहसि राग-दोसं, तेण विहन्थं तुमे सर्व ॥ ६५ ॥ फेडेमि गारवं ते, एयं चिय पवयं तुमे समयं । उम्मूलिऊण सयलं, घत्तामि लहु सलिलनाहे ॥ ६६ ॥ काऊण घोररूवं, रुट्टो संभरिय सबविज्जाओ। अह पवयस्स हेट्टा, भूमी भेत्त चिय पविट्ठो ।। ६७ ॥ हक्खुविऊण पयत्तो, भुयासु सबायरेण उप्पिच्छो । रोसाणलरत्तच्छो, खरमुहररवं पकुबन्तो ॥ ६८ ॥
होकर कोई महाशक्तिशाली मुनिवर अत्यन्त घोर तप कर रहा है। (५५) उसके प्रभावसे यह विमान आगे नहीं जा रहा है। अतः नोचे उतरो और पापका नाश करनेवाले मुनिको नमस्कार करो। (५६)
विमानको नीचे उतारकर उसने सुन्दर, बहुत ऊँचे शिखरोंके समूहसे युक्त तथा बादल सरीखे श्याम वर्णवाले कैलास पर्वतको देखा । (५७) वह सघन एवं तरुण वृक्षराजिके पुष्पों में लोन भौंरोंकी गुंजारसे व्याप्त था, बहते हुए झरनोंके निर्मल पानीके समूहसे उसका सुन्दर मध्य भाग स्पृष्ट था; उसका मूल भाग किन्नर, नाग एवं गन्धवों के सुमधुर संगीतके निर्घोषसे युक्त था; हिरन, भैसे, गेंडे, सिंह, सूअर, रुरु (मृगविशेष) व हाथीके समूहोंसे वह व्याप्त था; शिखररूपी हाथोंके समूह मेंसे बाहर निकले हुए अनेक प्रकारके रत्नोंके मनोहर आलोकसे वह आलोकित था तथा दसों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले स्वर्णविनिर्मित जिनमन्दिरोंसे वह युक्त था। (५८-६०) ऐसे कैलास पर्वत पर रावण उतरा। वहाँ पर उसने ध्यानभावमें स्थित तथा एक गोल शिला पर सूर्यकी धूपमें शरीरको तपाते हुए वालीको देखा। (६१) उसका वक्षःस्थल बड़ा और विशाल था, तपकी शोभासे वह पूर्ण था, उसकी दोनों भुजाएँ लटक रही थीं, वह निश्चल ध्यानमें आरूढ़ था और मेरुकी भाँति वह अडिग और धीर था। (६२) पहलेका बैर याद करके दशवदन भौंहें तानकर मुनिवर वालीको एकदम कठोर वचन कहने लगा कि मुनि होकरके भी पहलेके अपराधसे उत्पन्न रोषवश जो यह मेरा विमान तूने रोक रखा है यह बहुत ही सुन्दर किया ! (६३-४) तेरी प्रव्रज्या कहाँ गई ? सम्यग् आचरित तेरा संयम और तप कहाँ गया? चूंकि तू राग एवं द्वेष धारण किये हुए है, अतः तेरा सब कुछ विनष्ट हो गया । (६५) मैं तेरा घमण्ड और इस पर्वतको भी तेरे ही सामने चकनाचूर करता हूँ। सबको जड़मूलसे उखाड़कर समुद्रमें जल्दी ही फेंकता हूँ। (६६)
इस प्रकार कहकर और सर्व विद्याओंको यादकर रुष्ट रावणने भयंकर रूप धारण किया। बादमें जमीन तोड़कर यह पर्वतके नीचे प्रविष्ट हुआ। (६७) रोषरूपी अग्निसे लाल लाल आँखेवाला तथा कठोर एवं तुमुल कोलाहल करता हुआ वह गुस्से में आकर पूरे बलके साथ अपनी भुजाओंसे उसे उखाड़ने लगा । (६८) पृथ्वीसे वेष्टित उस पर्वतको
१. वालिं-प्रत्य।
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