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________________ १०७ ९.४०] ९. वालिणिव्वाणगमणाहियारो उत्तमकुलसंभूओ, उत्तमविरिओ सि विणयसंपन्नो । उत्तमपीईएँ तुम, भणइ लहुँ एहि दहवयणो ॥ २६ ॥ रिक्खरया-ऽऽइच्चरया, किक्किन्धिमहापुरे निययरज्जे । ठविया मए सणाहा, जिणिऊण जमं रणमुहम्मि ॥ २७ ॥ अन्नं पि एव भणियं, कुणह पणामं सिरीऍ नइ कजं । एवं च निययबहिणी, सिरिप्पमं देहि मे सिग्धं ॥ २८ ॥ अह भणइ पवङ्गनाहो, मज्झ सिरं मउड-कुण्डलाडोवं । मोत्तूण जिणवरिन्दं, न पडइ चलणेसु अन्नस्स ॥ २९ ॥ वालिवयणावसाणे, दूओ पडिभणइ निठुरं वयणं । तस्स पणामेण विणा, न य नीयं न य तुमे रज्जं ॥ ३० ॥ दूयवयोण रुटो, वग्घविलम्बी भडो भणइ एवं । किं सो गहेण गहिओ, उल्लवइ दसाणणो एवं? ॥ ३१ ॥ रे दूय ! किं न याणसि, वालिं बलदप्पगवियं धीरं ? । पुहईयलम्मि सयले, नस्स जसो भमइ निस्सको ॥ ३२ ॥ दूएण वि पडिभणिओ, वग्घविलम्बी सुनिट्ठुरं वयणं । भण्डह विलम्बगूढं, अहव पणामं कुणह गन्तुं ॥ ३३ ॥ दुबयणदूमियङ्गो, वग्धविलम्बी असिं नियच्छेउं । पहरन्तो च्चिय रुद्धो, दूयस्स सयं हरिवईणं ॥ ३४ ॥ किं मारिएण कीरइ, इमेण दूएण पेसियारेणं ? । जो परवयणुल्लावी, नवरं पडिसइओ एसो ॥ ३५ ॥ फरुसवयणेहि गाढं, जाहे निब्मच्छिओ गओ दूओ। सबं जहाणभूयं, रक्खसनाहस्स साहेइ ॥ ३६ ॥ सोऊण वालिवयण, सन्नद्धो दहमुहो सह बलेणं । अह निग्गओ तुरन्तो, तस्सुवरि अम्बरतलेणं ॥ ३७॥ रक्खसतूरस्स रवं, वाली सोऊण अभिमुहो चलिओ । कइसुहडसमाइण्णो, रणरसतण्हालुओ वीरो ॥ ३८ ॥ कोवग्गिसंपलित्तो, वाली मन्तीहि उवसमं नीओ। बहुभडजीयन्तकर, मा कुणह अकारणे नझं ॥ ३९ ॥ अह भणइ वाणरिन्दो, संगामे रावणं बलसमग्गं । करयलघायाभिहयं, करेमि संयलं कुलं चुण्णं ॥ ४० ॥ रावणने तुमसे कहा है कि तुम जल्दी आओ। (२६) युद्धक्षेत्र में यमको जीतकर मैंने अपने राज्यकी किष्किन्धि नगरीमें ऋक्षरजा और आदित्यरजाको राज्यपदपर अधिष्ठित किया था। (२७) उन्होंने और भी कहा है कि यदि तुम्हें लक्ष्मीसे प्रयोजन है तो आकर प्रणाम करो और अपनी श्रीप्रभा नामकी बहन मुझे जल्दी ही दो। (२८) इसपर बानरोंके स्वामी वालीने कहा कि मुकुट और कुण्डलोंसे युक्त मेरा सिर जिनवरेन्द्रको छोड़कर अन्य किसीके चरणोंमें नहीं गिरता । (२९) इस प्रकार वालीके कहनेपर दूतने कठोर बचन कहे कि उनके पैरों में प्रणाम किये बिना न तो तुम्हारा जीवन और न तुम्हारा राज्य ही सम्भव है। (३०) दूतके ऐसे कथनसे रुष्ट व्याघ्रविलम्बी नामका सुभट इस प्रकार कहने लगा-क्या वह दशामन किसी ग्रहसे गृहीत है कि ऐसा अंडबंड बोलता है ? (३१) हे दूत! बल एवं दपसे गर्वित, धीर और जिसका यश निःशंक होकर सम्पूर्ण पृथ्वीतलपर परिभ्रमण करता है ऐसे वालीको क्या तुम नहीं पहचानते ?' (३२) दूतने भी व्याघ्रविलम्बीको अति कठोर शब्दोंसे प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि विलम्बके पीछे जो बात छिपी हुई है उसे तुम कोसो, अथवा जाकरके प्रणाम करो। (३३) दूतके ऐसे दुर्वचनसे संतप्त अंगवाला वाघ्रविलम्बी तलवार खींचकर जैसे ही दूतपर प्रहार करनेके लिये उद्यत हुआ वैसे ही वानरपतिने उसे रोका कि यह दूत तो नौकर है जो दूसरेके कहेके अनुसार बोलनेवाला है। वस्तुतः यह तो प्रतिघोष जैसा है। इसे मारकर क्या करोगे ? (३४-३५) कठोर वचनों द्वारा अत्यन्त तिरस्कृत होनेपर वह दूत वहाँसे लौट आया और जो कुछ वहाँ अनुभव हुआ था वह सब राक्षसनाथ रावणको कह सुनाया। (३६) बालीका कथन सुनकर रावण सैन्यके साथ सज्ज हुआ और उसपर आक्रमण करनेके लिए तुरन्त आकाशमार्गसे निकल पड़ा । (३७) राक्षसोंके युद्ध वाद्यों की ध्वनि सुनकर युद्धरसकी तृष्णासे व्याकुल वह वीर वाली वानर सुभटोंके साथ उसका सामना करनेको चला । (३८) क्रोधाग्निसे जलते हुए वालीको मंत्री यह कहकर शान्त करने लगे कि अनेक सुभटोंके जीवनका अन्त करनेवाला यह युद्ध तुम अकारण मत करो। (३९) इसपर वानरेन्द्र वालीने कहा कि संग्राममें समग्र सैन्यके साथ रावण तथा उसके समस्त कुलको मैं अपने करतलके आघातसे पीटकर चूर-चूर कर सकता हूँ। (४०) किन्तु अपने १. सवलं इमं चुण्णं-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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