________________
८. २७४]
८. दहमुहपुरिपवेसो
१०३
सङ्खउलसिप्पिसंपुड-विहडियपेरन्तचच्चियतरङ्गं । सतरङ्गमारुयाहय-सरियामुहभरियकूलयलं ॥ २५९ ॥ कूलयलहंससारस-कलमलभरजणियरुद्धतडमग्गं । तडमम्गरयणबहुविह-किरणुज्जोवियदुरुप्पयरं ॥ २६० ॥ पयरन्तविसयमोत्तिय-धवलियघणफेणपुञ्जपुञ्जइयं । पुञ्जइयदिवपायव-कुसुमसमाइण्णदिण्णच ॥ २६१ ॥ दिण्णचणं व रेहइ, महलहल्लन्तवीइसंघट्ट । संघट्टजलाऊरिय, सबत्तो गुलगुलायन्तं ॥ २६२ ॥ एयारिसं समुई, नियमाणो जोयणाइँ बहुयाई । बोलेऊणं पेच्छइ, लङ्कानयरिं तिकूडत्थं ॥ २६३ ॥ सा माणुसोत्तरेण व, पायारवरेण संपरिक्खित्ता । वरकञ्चणामएणं, हुयवहमिव पजलन्तेणं ॥ २६४ ॥ तुङ्गेहि देउलेहि य, नाणामणि-रयणभित्तिकलिएहिं । गयणमिव मिलिउकामा, ससिकन्तमिणालधवलेहिं ॥ २६५ ॥ पायार-तोरणेसु य, अविरल उसवियवेजयन्तीहिं । वाहरइ व वोलन्ते, पवणायपल्लवकरहिं ॥ २६६ ॥ पुक्खरिणि-दीहियासु य, आरामुज्जाण-काणण-वणेहिं । पासाय-सभा-चेइय-घरेहि अहिययररमणिज्जा ॥ २६७ ॥ अगरुय-तुरुक्क-चन्दण-कप्पूरा-ऽगरुसुगन्धगन्धेणं । वासेइ समन्ताओ, दिसाउ उवभोगनीएणं ॥ २६८ ।। वच्चन्ता वि हु तुरियं, देवा दट्टण तं महानयरिं । अञ्चन्तयरमणिज्ज, सहसा मोत्त' न चाएन्ति ॥ २६९ ॥ किं जंपिएण बहुणा ?, सा नयरी सयलजीवलोगम्मि । विक्खाया गुणकलिया, इन्दस्सऽमरावई चेव ॥ २७० ॥
ठूण समासन्ने, समागयं दहमुहं बलसमग्गं । सबो वि नायरजणो, विणिग्गओ अभिमुहो सिग्धं ॥ २७१ ॥ केइत्थ खेयरभडा, हय-गय-रहवर-विमाणमारूढा । खर-करभ-केसरीसु य, संपेल्लुप्पेल्ल कुणमाणा ॥ २७२ ।। वरहार-कडय-केउर-कडिसुत्तय-मउड-कुण्डलाभरणा। कुडकुमकयङ्गराया, चीणंसुयपट्टपरिहाणा ॥ २७३ ।। मारीई सुय-सारण-हत्थ-पहत्था य तिसिर-धूमक्खा । कुम्भ-निसुम्भ-बिहीसण, अन्ने य सुसेणमाईया ॥ २७४ ।।
तट मार्गमें पड़े हुए रत्नोंसे निकलनेवाली किरणोंसे प्रकाशित विशाल प्रदेशवाला, बिखरे हुए निर्मल मोतियोंके कारण और भी सफेद प्रतीत होनेवाली घनी फेनके ढेरसे भरपूर, फैले हुए दिव्य वृक्षोंके पुष्पोंसे भलीभाँति अर्चित, हिलने-डुलनेवाली बड़ी-बड़ी तरंगें जिसमें टकरा रही हैं, ऐसा टकराते हुए जलसे पीड़ित-सा तथा चारों ओरसे गर्जना करनेवाला वह समुद्र मानो पूजा कर रहा हो ऐसा शोभित हो रहा था। (२५८-२५९) पुष्पक विमान द्वारा मुसाफ़री करनेवाले उसने बहुतसे योजन तक ऐसे समुद्रको पार करके त्रिकूट शिखर पर स्थित लंकानगरी देखी। (२६३) वह प्रज्वलित अग्नि सरीखे उत्तम सोनेके बने हुए मिलेसे मानुषोत्तर पर्वतकी भाँति घिरी हुई थी । (२६४) नाना प्रकारके मणि एवं रत्नोंसे युक्त दीवारवाले तथा चन्द्रकान्तमणि एवं मृणालके समान सफेद और ऊँचे देवमन्दिरोंके कारण वह मानो आकाशसे मिलना चाहती थी। (२६५) किलेके तोरणोंमें अविरल (पास-पास ) बाँधी हुई ऊँची-ऊँची ध्वजाओंसे तथा पवनसे आहत पल्लवरूपी हाथोंसे ऊपरसे उल्लंघन करनेवालोंको मानो वह आह्वान करतो थी। (२६६ ) सरोवर और बावड़ियोंसे तथा बारा-बगीचे व वन-उपवनों सौर प्रासाद, सभा एवं चैत्यगृहोंसे वह अत्यन्त रमणीय प्रतीत होती थी। (२६७) अगुरु, तुरुष्क, चन्दन एवं कपूरकी उपभोगके लिये बनाई गई सुगन्धीकी गन्धसे चारों ओर दिशाएँ सुवासित हो रही थीं। (२६८) जल्दी-जल्दी भागते हुए देव भी उस अत्यन्त रमगीय महानगरीको देख उसे सहसा छोड़ना नहीं चाहते थे। (२६९) बहुत कहनेसे क्या ? गुणों से युक्त तथा इन्द्रकी अमरावती नगरी सरीखी वह नगरी समग्र जीवलोकमें विख्यात थी। (२७०)
समग्र सैन्यके साथ दशमुखको समीपमें आया जान सभी नगर जन उसकी अगवानीके लिए शीघ्र ही बाहर निकले। (२७१) कोई विद्याधर सुभट घोड़े, हाथी, रथ एवं उत्तम विमान पर आरूढ़ हो तथा दूसरे गधे, ऊँट एवं सिंह पर सवार हो एक दूसरेको पेरते थे या ऊपर उछालते थे। (२७२) उत्तम हार, कड़ा, बाजूबन्द, करधौनी, मुकुट एवं कुण्डल आदि आभरणोंसे युक्त, कुकुमका अंगराग किये हुए और चीनांशुकके वस्त्र पहने हुए मारीचि, शुक एवं सारण मंत्री,
१. घत जल-प्रत्य.। २. भोगजणिएवं-मु० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org