________________
१०४ पउमचरियं
[८. २७५- . एएहि य अन्नेहि य, भडेहि परिवारिओ समन्तेणं । अइरेहइ दहवयणो इन्दो इव लोगपालेहिं ॥ २७५ ॥ नायरवहूहि सिग्धं, दहमुहदरिसणमणाहि अइरेयं । संसारिउं गवक्खा, रुद्धा चिय वयणकमलेहिं ॥ २७६ ॥ अन्ना अन्न पेल्ला, करेण मा ठाहि मग्गओ तुरियं । ताए विसा भणिज्जइ, किं मक्त न कोउयं बहिणे? ॥२७७॥ मा थणहरण पेल्लसु, दहमुहदरिसणमणाऽसि अइचवले! तीए वि य सा भणिया, मा रुम्भ गवक्खयं एयं ॥२७८॥ भणइ सही धम्मिल्ल, अवसारसु मज्झ नयणमग्गाओ। तीए वि य सा भणिया, न य पेच्छसि अन्तरं विउलं ॥२७९॥ नायरवहहि एवं, दसाणणं तत्थ पेच्छमाणीहिं । हलबोलमुहलसद्दा, भवणगवक्खा कया सबे ॥ २८० ॥ बहुतरनिणाएणं, कयकोउयमङ्गलो विमाणत्थो । लङ्कापुरी पविट्ठो, दहवयणो इन्दसमविभवो ।। २८१ ॥ पुरनारि-वहजणेणं. दिन्नासीसो थुईहि थुवन्तो । पइसरइ निययभवणं, थम्भसहस्साउलं तुझं ॥ २८२ ॥ कणयमयभित्तिचित्तं. मरगयलम्बन्तमोत्तिओऊलं । मन्दाणिलपरिघुम्मिर-धबलषडागाचलकरगं ॥२८३ ॥ सेसा वि य सामन्ता, अहिटिया अत्तणो सगेहेसु । देवा व देवलोगे, भुञ्जन्ति नहिच्छिए भोगे ॥ २८४ ॥ गुरु-बन्धु-सयण-परियण-सुयसहिओ पीवराऍ लच्छीए । भुञ्जइ लङ्कानयरी, दहवयणो पणयसामन्तो ।। २८५ ॥
विविहसंपयजायमहत्तया, पणयसत्तुगणा भयवेम्भला।।
सुकयकम्मफलोययसंगमे, विमलकित्ति दिसासु वियम्भिया ॥ २८६ ॥
॥ इय पउमचरिए दहमुहपुरिपवेसो नाम अट्ठमो उद्देसो समत्तो॥ हृष्ट-प्रहृष्ट त्रिशिर एवं धूम नामके पुत्र, कुम्भकर्ण, निषुम्भ, विभीषण तथा दूसरे सुषेण आदि-इन तथा इतर दूसरे भटों द्वारा चारों ओरसे घिरा हुआ रावण लोकपालोंसे घिरे हुए इन्द्रकी माति अत्यन्त शोभित हो रहा था । (२७५) रावणके दर्शनके लिये समुत्सुक मनवाली नगरकी स्त्रियाँ शीघ्र ही गवाक्षोंके पास आई। उस समय वे गवाक्ष मानो वदनकमलसे अवरुद्ध हो गये। (२७६) उस समय एक स्त्री दूसरीको हाथसे दबाने लगी और कहने लगी कि ठहरो मत, जल्दी चलो। इस पर वह दूसरी स्त्री भी कहती थी कि बहन, क्या मुझे भी देखनेका कौतुक नहीं है ? (२७७) 'हे अतिचपले! तुम्हें रावणके दर्शनका मन हुआ हो, तो भी अपने स्तनोंके भारसे मुझे मत दवाओ'-ऐसा कहने पर उसने भी उसे कहा कि 'इस गवाक्षको रोको मत ।' (२७८) कोई दूसरी कहती कि, 'हे सखी! तुम अपने केशपाशको मेरी आँखोंके मार्गसे तनिक हटाओ।' इस पर उसने कहा कि, 'इतनी बड़ी जगह बीचमें तो है। क्या वह नहीं दीखती ? (२७९) इस प्रकार दशाननकी दर्शनार्थी नगरस्त्रियोंने सभी गवाक्षोंको हल्लेगुल्लेकी आवाजसे भर दिया। (२८०) अनेकविध वाद्योंके निनाद द्वारा जिसका कौतुकमंगल किया गया है ऐसे इन्द्रके समान वैभवशाली दशवदनने विमानमें बैठे बैठे लंकापुरीमें प्रवेश किया। (२८१) नगरकी स्त्रियों और वधूजनों द्वारा आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ तथा स्तुतियों द्वारा प्रशंसित उस रावणने अपने हजारों खम्भोंसे व्याप्त और ऊँचे भवनमें प्रवेश किया। (२८२) वह भवन स्वर्णमय दीवारोंसे शोभित था। मरकत मणियोंमें लटकते हुए मोतियोंसे वह व्याप्त था। मन्द मन्द पवनसे शनैः शनैः हिलती हुई सफेद ध्वजाके कारण उसका अग्रभाग चंचल प्रतीत होता था। (२८३) बादमें जिस प्रकार देव स्वर्गलोकमें यथेच्छ भोगोंका उपभोग करते हैं उसी प्रकार बाकीके सामन्त भी अपने अपने घरों में जाकर यथेष्ट सुखोपभोग करने लगे। (२८४) सामन्तों द्वारा प्रणत दशवदन गुरुजन, बन्धुजन, स्वजन, परिजन एवं पुत्रोंके साथ अत्यन्त ऐश्वर्यके साथ लंकानगरीका उपभोग करने लगा। (२८५) विविध सम्पत्तियोंकी प्राप्तिसे महत्त्वशीला, शत्रुसमूहके झुक जानेसे भयके कारण विह्वल ऐसी उसकी विमल कीर्ति पुण्यकर्मके फलके उदयके साथ ही दिशा में प्रकाशित हो गई-फैल गई । (२८६)
॥ पद्मचरितमें दशमुखका नगर-प्रवेश नामका आठवाँ उद्देश्य समाप्त हुआ ॥ १. महव्वया-प्रत्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org