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________________ १०२ पउमचरियं २४८ ॥ नाव य खणन्तरेक्कं, ताव य सुहडेहि सत्यपहरेहिं । गय-तुरएहिं भूमी, रुद्धा पवडन्त-पडिएहिं ॥ एयारिसम्म जुज्झे, वट्टन्ते सुहडनीयविच्छड्ड । अह पेल्लिऊण सेन्न, दहमुहहत्तो नमो पत्तो ॥ दट्ठूण समासन्न े, एज्जन्तं नमभडं समावडिओ | रयणासवस्स पुत्तो, तेण समं जुज्झिउं पत्तो ॥ तो जुज्झिऊण सुइरं, चडक्कसरिसोवमेहि पहरेहिं । विरहो कओ कयन्तो, सरवरघायाहओ रुट्ठो || मुच्छानिमीलियच्छो, घेत्तूण सएण परियणसमग्गो । नीओ इन्दसयासं, रहनेउरचक्कवालपुरं ॥ पडिबुद्धो कयविणओ, भणइ सुरिन्दं पहू ! निसामेहि । नं तं किक्विन्धिपुरे, जमलीलाविलसियं रइयं ॥ २४९ ॥ रूसह फुडं व तूसह, अहवा वि य जीवणं हरह सबं । अन्नं च कुणह दण्डं, न करेमि नमत्तणं अहह्यं ॥ २५० ॥ समणलोपालो, जेण निओ साहिओ य मत्तगओ । अहमवि तेण रणमुहे, विमुहो यि सरवरेहि कओ ॥ २५९॥ एयं नमस्स वयणं, सुणिऊण सुराहिवो रणारम्भं । कुबन्तो च्चिय सबं, मन्तीहि निवारिओ सिग्धं ॥ २५२ ॥ भणिओ इन्देण जमो, वच्च तुमं पुरवरं सुरम्गीयं । अत्थसु वीसत्थमणो, मोत्तूण भयं रिउभडाणं ॥ इन्दो वि निययभवणे, सबसिरी - जुवइ सहगओ भोए । भुञ्जन्तो परमगुणो, न गणइ कालं पि वच्चन्तं ॥ अह रावणो विपत्तो, आइचरयस्स देइ किक्रिन्धी । रिक्खरयस्स वि दिन्नं, रिक्खपुरं महुगिरिस्सुवरिं रिक्खरया-ऽऽइच्चरया, ठविऊण कुलागएसु नयरेसु । पुप्फविमाणारूढो, उप्पइओ दहमुहो गयणं ॥ वच्चइ लङ्काभिमुहो, खेयरभडचडयरेण महएणं । पेच्छन्तो लवणजलं, उम्मिसहस्साउलं भीमं ॥ २५७ ॥ भीम-झस-मयर-कच्छह-अन्नोन्नावडियविलुलियावत्तं । आवत्तविद्दुमाहय - निल्लूरियदलियसङ्घउलं ॥ २५८ ॥ २५३ ॥ २५४ ॥ ॥ २५५ ॥ २५६ ॥ [ ८.२४४ कटकर नीचे गिरनेवाले हाथी एवं घोड़ोंसे युद्धभूमि छा गई । (२४४ ) योद्धाओंके जीवनका नाश करानेवाला ऐसा युद्ध. जब हो रहा था तब सेनाको पेरता हुआ यम दशमुख के पास आ पहुँचा । (२४५) पासमें आते हुए सुभट यमको देखकर रत्नश्रवाका पुत्र रावण उसके समक्ष युद्ध करनेके लिए उपस्थित हुआ । (२४६) बादमें बिजलीकी तरह चमकदार शस्त्रोंसे चिरकाल तक युद्ध करके उसने क्रुद्ध यमको उत्तम वाणोंके प्रहारसे घायल करके रथभ्रष्ट कर दिया। ( २४७) मूर्च्छाके कारण बन्द आँखोंवाले उसे समग्र परिवार के साथ इन्द्र के पास रथनपुर (चक्रवालपुर) में ले गये । (२४८) होश में आने पर "उसने सुरेन्द्र से विनयपूर्वक कहा कि हे प्रभो ! किष्किन्धिपुरमें मैंने जो यमलीला की है उसके बारे में भाप सुनें । (२४९) आप चाहे खूब गुस्से में हों या प्रसन्न हों, अथवा मेरा सारा जीवन ही ले लें, अथवा दूसरा कोई भी दण्ड दें, पर अब मैं यमत्व ( अर्थात् यमका कार्य ) नहीं करूँगा । (२५०) जिसने लोकपाल वैश्रमणको पराजित किया और जिसने मत्त हाथीको क़ाबू में किया उसीने मुझे अपने बाणों द्वारा युद्धसे विमुख बनाया है। (२५१) यमका ऐसा कथन सुनकर इन्द्रने चारों ओर से धावा बोलनेका निश्चय किया, पर मंत्रियोंने उसे शीघ्र ही रोका । ( २५२ ) इस पर इन्द्रने यमसे कहा कि तुम सुरोद्गीत नामके उत्तम नगर में जाओ और शत्रुके सुभटोंके भयका त्याग करके निःशंकमना होकर रहो । (२५३) इधर इन्द्र भी अपने भवन में सम्पूर्ण शोभा सम्पन्न युवतियों के साथ अत्युत्तम भोगोंका उपभोग करता हुआ काल कैसे बीतता है, इसकी भी परवाह नहीं करता था । ( २५४) Jain Education International २४४ ॥ २४५ ॥ २४६ ॥ २४७ ॥ विजयप्राप्त रावणने आदित्यरजाको किष्किन्ध नगरी दी, तथा ऋक्षरजाको मधुगिरिके ऊपर बसा हुआ रितपुर दिया । ( २५५ ) इस प्रकार ऋक्षरजाको और आदित्यरजाको कुलपरम्परासे प्राप्त नगरों में अधिष्ठित करके रावण पुष्पकविमानमें चढ़कर आकाशमें उड़ा । ( २५६ ) खेचर सुभटोंके बड़े भारी समुदाय के साथ हजारों लहरोंवाले भयंकर लवणसमुद्रको देखते हुए उसने लंकाकी ओर प्रस्थान किया । ( २५७) भयंकर मत्स्य, मगरमच्छ तथा कछुभोंके एक दूसरे पर गिरने से अस्थिर भँवरवाला, गोलाकार विद्रुमकी चोट खाने से कटे हुए और पीसे गये शंखोंसे व्याप्त, शंख- समूह एवं सीपके संपुटोंके विच्छिन्न होनेसे जिनके प्रान्तभाग शोभित हो रहे हैं, ऐसी तरंगोंवाला, पवनकी लहरोंसे आहत नदियोंके मुहानोंके पासके किनारोंमें भरे हुए जल वाला, किनारे पर बसे हुए हंस तथा सारस पक्षियोंकी विष्टाके कारण अवरुद्ध तट-मार्ग बाला, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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