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________________ पउमचरियं [८.२१३परिपुच्छइ दहवयणो, सद्दो कस्सेस ? कस्स व ? कहिं वा ! । सामिय ! गयस्स सद्दो, एसो भणियं पहत्थेणं ॥ २१३ ॥ अह गयवरं पत्थो, दावेइ दसाणणस्स रणम्मि । घणनिवहनीलनिद्ध', अञ्जणकुलसेलसच्छायं ॥ २१४ ॥ सत्तस्सेहं नवहत्थ आययं दस य परियरा पुण्णं । सुपइट्टियसबङ्गं, महुपिङ्गललोयणं तुझं ॥ २१५ ॥ घण-पीण-वियडकुम्भ, दीहकरं पउमवण्णसमतालुं । सियदन्त पिङ्गलनखं, गण्डयलुब्भिन्नमयलेहं ॥ २१६ ॥ दट ठूण गयवरं सो, पुप्फविमाणाउ तुरियवेगेणं । अवइण्णो दहवयणो, तस्स समीवं समल्लीणो ॥ २१७ ।। काऊण सङ्घसद्द', घोरं उत्तासणं वणयराणं । आयारइ मत्तगयं ए! एहि महं सवडहुत्तो ॥ २१८ ॥ सोऊण सङ्घसद्द, दट् ठूण दसाणणं समासन्ने । मणपवणतुरियवेगो, संपत्तो अभिमुहो हत्थी ॥ २१९ ।। अह मुयइ उत्तरिज्जं, गयपुरओ सललियं धरणिवठे । तस्स परिहत्थदच्छो, दन्तच्छोहं कुणइ हत्थी ॥ २२० । जाव य मही निसण्णो, दन्तम्गविदारियं कुणइ वत्थं । ताव रयणासवसुओ, करेहि कुम्भत्थलं हणइ ।। २२१ ॥ पविसरइ गत्तविवर, पुणरवि पासेसु मम्गओ पुरओ। चलचवलमोहणेहिं, चक्कारूढो ब परिभमइ ॥ २२२ ।। ववगयदप्पुच्छाह, हथि काऊण दहमुहो रणे । उप्पइऊण सललियं, गयस्स खन्धं समारूढो ॥ २२३ ॥ गयवरगहणनिमित्तं, खेयरवसहेहि परमपीईए । पडुपडहतूरपउरी कओ पमोओ अइमहन्तो ।। २२४ ॥ घेत्तूण गयवरिन्दं भुवणालंकारनामधेयं सो। चिन्तेइ मणेण महं सिद्ध चिय तिहुयणं सयलं ॥ २२५ ।। वसिऊण तत्थ रयणी, पडिबुद्धो दहमुहो सुहासीणो । अत्थाणमण्डवत्थो, भडसहिओ गयकहासत्तो ।। २२६ ॥ ताव य नहङ्गणेणं, समागओ खेयरो पवणवेगो । पहरणजज्जरियतणू, तं चेव सह समल्लीणो ॥ २२७॥ (२९२) इस पर दशवदनने पूछा कि यह ध्वनि किसकी है और कहाँसे आ रही है? रावणके मामा प्रहस्तने कहा कि हे स्वामी! यह हाथीकी चिंघाड़ है। (२१३) इसके बाद प्रहस्तने अरण्यमें रावणको वह हाथी दिखलाया। सात हाथ ऊँचे, नौ हाथ लम्बे, दस हाथ परिकरवाले, भरे हुए काले बादलोंके समूह जैसे, कुलपर्वत अंजनगिरिकोसी कान्तिवाले, घने मोटे और भयंकर कुम्भस्थलवाले, लम्बी ढूँढवाले, पद्मके वर्णके समान तालुप्रदेशवाले, सफेद दाँत तथा पीले नखवाले और गण्डस्थलमेंसे चूनेवाले मदको रेखासे युक्त उस हाथीको देखकर रावण पुष्पक विमानसे जल्दीसे नीचे उतरा और उसके समीप गया। (२१४-२१७) वहाँ वनचर प्राणियोंको अत्यन्त त्रास देनेवाली घोर शंखध्वनि करके उसने उस मस्त हाथीको ललकारा कि अरे, मेरे पास तो तू आ ! (२१८) शंखकी आवाज सुनकर तथा समीपमें दशाननको देखकर मन एवं पवनकी भाँति तीव्र गतिवाला वह हाथी उसके सम्मुख आ पहुँचा । (२१९) इसके पश्चात् निपुण एवं कार्यकुशल रावणने सहज भावसे उस हाथीके सामने पृथ्वी पर अपना उत्तरोय वस्त्र छोड़ा। हाथी दाँतसे उसे चोट करने लगा। (२२०) वह पृथ्वी पर बैठकर अपने दातोंके अग्रभागसे जबतक उस वस्त्रको चीरता है तब तक तो रत्नश्रवाका पुत्र रावण अपने हाथोंसे उसके गण्डस्थलको मारने लगा। (२२.) मारकी पीड़ासे व्याकुल वह गड़ेमें सरकने लगा तो उसे आगेपीछे रावण ही रावण दिखाई देने लगा। वशीकरण मंत्रों द्वारा अस्थिर किया गया वह चक्रके ऊपर आरूढ़की भाँति घूमने लगा । (२२२) इस युद्ध में हाथीको दर्प एवं उत्साह रहित बनाकर रावण कूदकर आसानीसे उसके कन्धे पर सवार हो गया। (२२३) इस प्रकार हाथीको काबू में लानेके कारण आनन्दमें आये हुए खेचर राजाओंने उत्तम नगारे तथा दूसरे वाद्योंसे युक्त बड़ा भारी उत्सव मनाया । ( २२४) हाथियोंमें इन्द्र जैसे उस भुवनालंकार नामक उत्तम हाथीको प्राप्त कर वह मन ही मन सोचने लगा कि मैंने सारे तीनों लोक जीत लिये हैं। (२२५) रावण द्वारा यमविनय वहाँ रात रहकर प्रातः जगने पर सभामण्डपमें आरामसे बैठा हुआ रावण सुभटोंके साथ हाथोकी कहानी कहने में जब लीन था तब आकाशमार्गसे शस्त्रोंके कारण देदीप्यमान शरीरवाला पवनवेग नामका एक विद्याधर वहाँ पाया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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