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________________ ८. दहमुद्दपुरिपवेसो नहत्थी न य जोहो न य तुरओ अत्थि जो परबलम्मि । हरिसेणेण रणमुहे, जो य न विद्धो वरसरेहिं ॥ दहूण निययसेन्नं भयविहलविसंथुलं समरमज्झे । भग्गा पलाइया ते, गङ्गाहर-महिहरा दो वि ॥ पुण्णोदयम्मि जाओ, चोइसरयणाहिवो भरहनाहो । दसमो य चक्कवटी, हरिसेणो नाम विक्खाओ ॥ भुञ्जन्तोचि सयलं, रज्जं चिन्तेइ तग्गयमणो सो । मयणावलीऍ रहिओ, मन्नइ सुन्नं व तइलोक्कं ॥ तावसकुलासमपयं, हरिसेणो सह बलेण संपत्तो । दिट्टो य वणयरेहिं, कुसुमफलाउण्णहत्थेहिं ॥ Gunaण दिन्ना, भयं धरन्तेण सा परमकन्ना । नागवईए वि तओ, वीवाहविही कओ रम्मो ॥ मयणावलीऍ सहिओ, बत्तीससहस्सपत्थिवाइण्णो । पत्तो कम्पिल्लपुरं, थुबन्तो मङ्गलसएहिं ॥ दिट्टा य निययजणणी, रइयं चिय चलणवन्दणं तीए । वप्पा दट्ठूण सुर्य, न माइ नियएसु अङ्गेषु ॥ दिणयरसरिसावयवा, कम्पिल्लपुरे कया रयणचित्ता । हरिसेणेण निणरहा, वप्पाए भामिया बहवे ॥ समणाण सावयाण य, जाया वि हु संपया परमरिद्धी । जिणसासणे पवन्नो, लोगो धम्मुज्जयमईओ ॥ तेण इमे धरणियले निणालया कारिया धवलतुङ्गा । बहुगाम-नगर-पट्टण - नइसंगम - पबयग्गेषु रज्ज काऊण चिरं, भोत्तूण सुरयसंगमे भोए । पडिवन्नो निणदिक्खं, मलरहिओ सिवसुहं पत्तो ॥ ॥ ८. २१२ ] भुवनालङ्कारहस्ती एयं हरिसेणकहं, सोऊण दसाणणो परमतुट्टो । सिद्धाण नमोक्कार, काऊण य पत्थिओ सहसा ॥ अवइण्णो दहवयणो, सिग्धं सम्मेयपवयनियम्बं । अह सुणइ गुरुगभीरं, सद्दं पसरन्तवित्थारं ॥ १९९ ॥ २०० ॥ Jain Education International २०१ ॥ २०२ ॥ २०३ ॥ २०४ ॥ For Private & Personal Use Only २०५ ॥ २०६ ॥ २०७ ॥ २०८ ॥ २०९ ॥ २१० ॥ २११ ॥ २१२ ॥ भाँति प्रेक्षणीय ऐसा वह युद्ध था । ( १९८) शत्रुसैन्यमें ऐसा कोई हाथी, योद्धा या घोड़ा नहीं था जिसे युद्धभूमिमें हरिषेणने अपने वीक्ष्ण बाणोंसे घायल न किया हो । ( १९९) युद्ध में भयसे विकल और व्याकुल अपने सैन्यको देखकर गंगाधर और महीधर दोनां नाहिम्मत हो गये और भाग खड़े हुए। (२००) ९९ पुण्यका उदय होने पर चौदह रत्नोंका स्वामी तथा समग्र भरत क्षेत्रका नाथ हरिषेण दसवें चक्रवर्ती रूपसे विख्यात हुआ । ( २०१ ) सम्पूर्ण राज्यका उपभोग करने पर भी मदनावलीमें आसक्त मनवाला वह, उसके अभाव में तीनों लोकों को शून्य मानता था । ( २०२ ) अतएव हरिषेण सेनाके साथ उस तापस आश्रम में आ पहुँचा। मार्ग में पुष्प एवं फलसे परिपूर्ण हाथोवाले वनचरोंने उसके दर्शन किये । ( २०३ ) भयभीत जनमेजयने वह सुन्दर कन्या उसे दी। बादमें नागमतीने भी उनकी सुभग विवाहविधि सम्पन्न की । ( २०४ ) बत्तीस हजार राजाओंसे घिरा हुआ तथा सैकड़ों मंगलगीतोंसे स्तुत वह मदनावलीके साथ काम्पिल्यपुर में आ पहुँचा ! (२०५) वहाँ उसने अपनी माताके दर्शन किये और उसके पैरों में वन्दन किया । अपने पुत्रको देखकर वप्रा हर्षवश अपने अंगों में समाती नहीं थी । ( २०६ ) हरिषेणने काम्पिल्यपुरमें सूर्य सदृश अवयववाले तथा रत्नोंसे चित्र विचित्र प्रतीत होनेवाले बहुतसे जिनरथ बनवाये । वप्राने उन्हें नगर में घुमाया । (२०७) श्रमण एवं श्रावकों को उत्कृष्ट ऋद्धि प्राप्त हुई तथा धर्ममें प्रयत्नशील और बुद्धिशाली लोगोंने जैनधर्म अंगीकार किया । (२०८ ) उसी हरिषेणने पृथ्वी परके ग्राम, नगर, पत्तन एवं नदियोंके संगम स्थानोंपर तथा पर्वतोंके शिखरोंके ऊपर ये सफेद और ऊँचे जिनालय बनवाये हैं । ( २०९) चिरकाल तक राज्य करनेके पश्चात् सुख-भोगोंका त्यागकर उसने जैनदीक्षा अंगीकार की। बाद में कर्ममलसे रहित उसने शिवसुख ( मोक्ष ) प्राप्त किया । (२१० ) भुवनालंकार नामक हाथी पर रावणका आधिपत्य-वर्णन : हरिषेणकी यह कथा सुनकर अत्यन्त हर्षित दशाननने सिद्धोंको नमस्कार करके एकदम आगे प्रस्थान किया । ( २११ ) शीघ्र ही रावण सम्मेतशिखर पर्वतकी ढाल पर उतरा। वहाँ उसने चारों ओर फैली हुई एक अत्यन्त गम्भीर ध्वनि सुनी । www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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