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८.१८३]
८. दहमुहपुरिपवेसो तइया उ निग्गयाओ, उज्जाणवरम्मि नयरजुवईओ । पेच्छन्ति वरकुमारं, हरिसेणं अणिमिसच्छीओ ॥ १६९ ॥ ताव य गओ वि रुट्ठो, पहाविओ अभिमुहो वरतणूणं । पगलन्तदाणसलिलो, सललियघोलन्तभमरउलो ॥ १७० ॥ दट ठूण य तं एन्तं, मत्तमहागयवरं गुलगुलेन्तं । भयविहलविम्भलाओ, पलयन्तिऽह सयलजुवईओ ॥ १७१ ॥ दट ठूण य हरिसेणो, जुवइनणं गयभएण विलवन्तं । कलुणहियओ महप्पा, तस्स सयासं समल्लीणो ॥ १७२ ।। नाऊण गयं खुहियं, नयरजणो धाविओ दवदवाए । अह पेच्छिउँ पयत्तो,राया विहुभवणसिहरत्थो ॥ १७३ ॥ तो भणइ कुञ्जरवरं, किं ते जुवईसुतुज्झ अवरद्धं ? । ए! एहि सबडहुत्तो, मज्झ तुम मा चिरावेहि ॥ १७४ ॥ मोत्तूण जुवइवग्गं, हत्थी चलचवलगमणपरिहत्थो । अह तस्स सवडहुत्तो, पहाविओ आयरुप्पिच्छो ॥ १७५ ॥ परियरदढोवगूढो, हरिसेणो विज्जुविलसिएण तओ। दन्ते दाऊण पर्य, चडिओ हंसो छ लीलाए ॥ १७६ ।। मण-नयणमोहणेहि, बहुविहकरणेहि सत्थदिहिं । चलचलणपीणपेल्लण-करयलअप्फालणेहिं च ॥ १७७ ॥ बलदप्पभग्गपसरं, काऊण खलन्तसिढिलपयगमणं । गेण्हइ गयं महप्पा, नागं पिव निविसं काउं ॥ १७८ ॥ कण्णे घेत्तूण तओ, आरूढो गयवरं अतिमहन्तं । भणइ य सुहोवएसं, जह पुण एयं न कारेसि ।। १७९ ॥ अह पुरवरं पविट्ठो, नर-नारिसएसु तत्थ दीसन्तो । पत्तो नरिन्दभवणं, कुसुमाउहरूवसंठाणो ।। १८० ॥ पासायतलत्थो चिय, राया ठूण गयवरारूढं । चिन्तेइ कोइ एसो, उत्तमपुरिसो न संदेहो ॥ १८१ ॥ तो नरवइणा दिन्नं, सयमेयं तस्स वरकुमारीणं । वीवाहमङ्गलं सो, कुणइ पहिट्ठो महिड्डीओ ॥ १८२ ।। तेहि समं विसयसुह, भुञ्जन्तो सुरवरो व सुरलोए । तत्थऽच्छइ हरिसेणो, तह विय मयणावली सरइ ॥ १८३ ॥
उसी समय बाहर निकली हुई उस नगरको युवतियाँ उद्यानमें अनिमेष लोचनोंसे कुमार हरिषेणको देखने लगीं। (१६९) उस समय एक क्रुद्ध हाथी उन सुन्दरियोंकी ओर दौड़ा। उस हाथीका मदजल कर रहा था तथा मौजसे घूमते हुए भौरोंसे वह व्याप्त था । (१७०) 'गुड गुड्' आवाज़ करते हुए उस बड़े मदोन्मत्त हाथीको आते देख भयसे विकल एवं विह्वल वे सभी युवतियाँ भागने लगीं। (१७१) हाथीके भयसे विलाप करती हुई उन युवतियोंको देखकर करुणासे व्याप्त हृदयवाला वह महात्मा हरिषेण उनके पास गया । (१७२) दुब्ध हाथीके बारेमें सुनकर नगरजन भी तेजीके साथ दौड़ पड़े-उनमें भी भगदड़ मच गई। इधर महलके ऊपरसे राजा भी देखने लगा । (१७३) उधर कुमारने हाथीसे कहा कि इन युवतियोंने तेरा क्या अपराध किया है? मेरे सामने आ, देर मत लगा। (१७४) इस पर चंचल और गमनमें कुशल तथा आकारमें भयंकर वह हाथी उन युवतियोंको छोड़कर उसके सामने दौड़ा। (१७५) मजबूतीसे कमर कसकर हरिषेण बिजलीकी चमककी तरह उस हाथी के दाँतों पर पैर रखकर हंसकी भाँति सरलतासे उसपर चढ़ गया। (१७६) शास्त्रोंमें निर्दिष्ट मन एवं आँखोंकी अनेकविध सम्मोहन शक्ति द्वारा तथा चंचल पैरोंसे खूब लतियाकर और हाथों द्वारा खूब पीटकर उस हाथीके बलका घमण्ड चूर कर दिया। बादमें स्खलित होनेसे पैरोंकी ढीली गतिवाले उस हाथीको सर्पकी भाँति निर्विष करके उसने काबूमें कर लिया। (१७७-१७८) इसके पश्चात् कान पकड़कर उस बड़े हाथी पर वह सवार हो गया और अच्छा उपदेश देने लगा कि अब फिर ऐसा मत करना । (१७९) उसके बाद उसने नगरमें प्रवेश किया। कामदेवके समान रूप एवं आकृतिवाला तथा सैकड़ों नर-नारियों द्वारा दर्शन किया जाता वह राजभवनके पास मा पहुँचा । (१८०) महलके ऊपर खड़ा हुआ राजा हाथी पर सवार उसे देखकर सोचने लगा कि यह कोई उत्तम पुरुष है, इसमें सन्देह नहीं । (१८१) ऐसा सोचकर अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न उस राजाने प्रसन्न होकर एक सौ उत्तम कुमारियाँ उसे दीं और उनका विवाहमंगल किया। (१८२) देवलोकमें देवकी भाँति उनके साथ विषयसुखका उपभोग करता हुआ हरिषेण यद्यपि वहाँ रहा, फिर भी मदनावलीको तो वह याद करता ही रहा । (१८३)
१. वणम्मि-प्रत्य० ।
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