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पउमचरियं
[८. १५४अह निग्गओ पुराओ, रयणीए जणपसुत्तसमयम्मि । पविसरइ महारणं, घणतरुवर-सावयाइण्णं ॥ १५४ ॥ तत्थ परिहिण्डमाणो. दिट्ठो च्चिय ताबसेहि हरिसेणो । दिन्नासणोवविट्ठो, फल-मूलाई कयाहारो ॥ १५५ ॥ चम्पापरीऍ राया. तइया जणमेजओ पहियकित्ती । कालनरिन्देण तया, रुद्धो चिय साहणसमग्गो ॥१५६ ॥ नणमेजओ वि राया. नयराओ निग्गओ बलसमिद्धो । अह जुज्झिउं पवत्तो, कालेण समं सवडहत्तो ॥ १५७ ॥ नाव य वट्टइ जुझं, ताव सुरुङ्गाएँ पुबरइयाए । भज्जा से नागवई, दुहियाएँ समं गया रणं ॥ १५८ ॥ तं चिय तावसनिलयं, नागवई पुवमेव संपत्ता । चिट्ठइ दुहियाएँ सम, कालक्खेवं विहारन्ती ॥ १५९ ॥ द ठूण य हरिसेणं, कन्ना सा ललियनोबणापुण्णा । पुलयन्ती न य तिप्पइ, विद्धा कुसुमाउहसरेहिं ॥ १६० ॥ जणणी सा कुमारी, भणिया संभरसु पुबवयणाई । चक्कहरस्स वरतणू, होहिसि महिला तुमं बाले।॥ १६१ ॥ तं पेच्छिऊण सो वि हु, हरिसेणो मयणबाणभिन्नङ्गो । चिन्तेइ इमा मुद्धा, होही य कया महं घरिणी? ॥ १६२ ।। नेहाणुरागरतं, कन्नं नाऊण तावसगणेहिं । निद्धाडिओ कुमारो, हरिसेणो आसमपयाओ ॥ १६३ ।। हरिसेणो वि हुतीए, कन्नाए रूव-जोबण-गुणोहं । सरमाणो च्चिय निर्दे, न लहइ रतिदियं चेव ।। १६४ ॥ न य आसणेन सयणे, न य गामे न य पुरे मणभिरामे । न य उज्जाणवरहरे, लहइ धिई तीएँ विरहम्मि ॥ १६५ ॥ एवं विचिन्तयन्तो, हरिसेणो जइ लभामि तं कन्नं । तो सयलभरहवास, भुत्तं चिय नत्थि संदेहो ॥ १६६ ॥ गामेसुः पट्टणेसु य, सरियाकूलेसु पबयग्गेसु । जिणवरघराइँ तो हैं, सिग्घं चिय कारइस्सामि ॥ १६७ ॥
तच्चित्त तग्गयमणो, गामा'ऽऽगर-नगरमण्डियं वसुहं । परिहिण्डन्तो कमसो, सिन्धुणदं पाविओ नयरं ॥ १६८ ।। एवं शोकसे अत्यन्त सन्तप्त माताको भी मैं देखनेमें असमर्थ हूँ। अतः अपना भवन छोड़कर निर्जन वनमें मैं प्रवेश करूँगा । (१५३) ऐसा सोचकर लोग जब सोये हुए थे तब रातमें वह नगरसे बाहर निकला और घने पेड़ों तथा जङ्गली जानवरोंसे व्याप्त एक बड़े भारी जंगलमें प्रवेश किया। (१५४) वहाँ घूमते हुए उसे तापसोंने देखा। आसन देनेपर वह उसपर बैठा और फल, मूल आदिका आहार किया ! (१५५)
__ उस समय चम्पापुरीमें, जनमेजय नामका एक राजा रहता था, जिसकी कीर्ति चारों ओर फैली हुई थी। उसे अपने सैन्यके साथ काल नामक राजाने घेर लिया ! (१५६) सैन्यसे समृद्ध जनमेजय राजा भी नगरसे बाहर निकला और कालके साथ आमने-सामने होकर लड़ने लगा । (१५७) इधर जब युद्ध हो रहा था उससे पहलेसे तैयार की हुई सुरंगके द्वारा उसकी पत्नी नागमती अपनी लड़कीके साथ बाहर निकलकर जंगलमें चली गई और उसी तापस आश्रममें पहले ही पहुंच गई। वहाँ वह अपनी लड़कीके साथ समय गुजारने लगी। (१५८-१५९) हरिषेणको देखकर कुसुमायुध कामदेवके बाणोंसे बींधी हुई वह सुन्दर एवं यौवनसे युक्त लड़की पुलकित हुई। उसे हरिषेणको देखनेसे तृप्ति ही नहीं हाती थी। (१६०) माताने उस कुमारीसे कहा कि, हे बाले! सुन्दर शरीरवाली तू चक्रधरकी पत्नी बनेमी-ऐसे पूर्वके वचन त याद कर । (१६१) उस कन्याको देखकर मदनके बाणसे खण्डित शरीरवाला वह हरिषेण भी सोचने लगा कि यह शुद्ध कुलवाली कब मेरी गृहिणी बनेगी ? (१६२) स्नेहानुरागसे अनुरक्त उस कन्याको जानकर तापसोंने कुमार हरिषेणको आश्रमसे बाहर निकाल दिया। (१६३) हरिषेण भी उस कन्याके रूप एवं गुणोंको रातदिन याद करता हुआ नींद नहीं लेता था। (१६४) उसके विरहके कारण आसन या शयनमें, गाँव या सुन्दर नगरमें, अथवा सुन्दर और आकर्षक उद्यानमें उसे चैन नहीं पड़ती थी । (१६५) हरिषेण ऐसा सोचता था कि यदि मैं उस कन्याको प्राप्त करूँ तो समग्र भरतक्षेत्रका उपभोग कर सकूँगा, इसमें सन्देह नहीं है । (१६६) तब तो मैं गाँवोंमें, नगरोंमें, नदियोंके किनारों पर, पर्वतोंके सिखरों पर अविलम्ब ही जिनमन्दिरोंका निर्माण कराऊँगा । (१६७) उस कन्यामें जिसका मन लगा है ऐसा वह विविध गाँवों और मकानोंसे शोभित वसुधा पर परिभ्रमण करता हुआ क्रमशः सिन्धुनद नामक नगरमें आ पहुँचा। (१६८)
१ कया य मह-प्रत्प। २ गुणेहिं-मु.। ३ ऽगरावविहमंडियं-मु.।
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