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८. १५३] ८. दहमुहपुरिपर्वेसो
९५ एयाण नमोक्कारं, करेहि दहमुह ! विसुद्धभावेणं । कलिकलुसपावरहिओ, होहिसि नत्थेत्थ संदेहो ॥ १४० ॥ नमिऊण चेइयहरे. पुच्छह हरिसेणसन्तियं चरियं । केण निमित्तेण पहू ! कया इमे जिणवराययणा ॥१४१ ॥ सत्थ-ऽत्थ-नयविहिन्नू , भणइ सुमाली मणोहरगिराए । दहमुह ! एगम्गमणो, सुणेहि नह जिणहरुप्पत्ती ॥ १४२ ॥ हरिषेगचक्रिचरितम् :अत्थि भरहद्धवासे, कम्पिल्लपुरे मणोभिरमणिज्जे । सीहद्धओ ति नामं, राया बहुषणयसामन्तो ॥ १४३ ॥ तस्साऽऽसि महादेवी, वप्पा नामेण रूवगुणकलिया । तीए सुओ कुमारो, हरिसेणो लक्वणोवेओ ॥ १४४ ॥ अह अन्नया कयाई, वप्पाए जिणरहो रयणचित्तो । काराविओ य नयरे, चेइहरे धम्मसीलाए । १४५ ॥ अन्ना वि तस्स महिला, लच्छी नामेण रूवसंपन्ना । मिच्छत्तमोहियमई, पडिणीया जिणवरमयम्मि ॥ १४६ ॥ सा भणइ एस पढमो. बम्भरहो भमउ नयरमज्झम्मि । अट्ठाहियमहिमाए, परिहिण्डउ जिणरहो पच्छा ॥ १४७ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, वज्जेण व ताडिया सिरे वप्पा । अह सा कुणइ पइन्नं, दुक्खमहासोगसंतत्ता ॥ १४८ ।। नइ पढमनिणरहो विहु, भमिही नयरे सुसङ्घपरिकिण्णो। ताहोही आहारो, नियमा पुण अणसणं मज्झ ॥ १४९ ॥ कमलदलसरिसनयणं,रोवन्ती पेच्छिऊण हरिसेणो। पुच्छइ ससंभमहिओ, अम्मो ! किं रुयसि दुक्खत्ता ? ॥ १५० ॥ निणवररहाइभमणं, परिकहियं तस्स एव जणणीए । चिन्तेऊण पवत्तो, सोगमहासंकडे पडिओ ॥ १५१ ॥ माया पिया य दोणि वि, लोगम्मि महागुरू इमे भणिया । न य ताण जणविरुद्धं, करेमि पीडा सुथेवं पि ॥ १५२ ॥
न य द ठूण समत्थो, जेणणी बहुदुक्ख-सोगसंतत्ता । मोत्तण निययभवणं, रणं पविसामि जणरहियं ॥ १५३ ॥ हुआ है। उसने पृथ्वीपर अनेक ऐसे जिनचैत्य बनवाये हैं । (१३९) हे दशमुख ! तुम विशुद्ध भावके साथ इन्हें नमस्कार करो। इससे तुम कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले मलिन पापसे रहित हो सकोगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। (१४०) चैत्यगृहोंको वन्दन करके रावण हरिषेणका चरितं पूछने लगा, कि हे प्रभो! उसने क्यों जिनवरोंके ये चैत्य बनवाये । (१४१) शास्त्रोंके अर्थ तथा नीतिके जानकार सुमालीने मनोहर वाणीमें कहा कि, हे दशमुख ! इन जिनसन्दिरोंका निर्माण जिस तरह हुआ है उसके बारेमें तुम ध्यान लगाकर सुनो । (१४२) हरिषेण चक्रवर्तीका वृत्तान्त :
भरतार्द्ध में काम्पिल्यपुर नामका एक मनोहर नगर है। उसमें अनेक सामन्त जिसको प्रणाम करते हैं ऐसा सिंहध्वज नामका एक राजा था । (१४३) उसकी रूप एवं गुणसे युक्त वप्रा नामकी पटरानी थी। उससे शुभ लक्षणोंसे युक्त हरिषेण नामका कुमार हुआ। (१४४) एक बार धर्मशील वप्राने चैत्यगृहसे युक्त उस नगरमें जिनेश्वरदेवके लिये रत्नोंसे खचित एक रथ बनवाया । (१४५) उसकी रूपवती एक दूसरी भार्याका नाम लक्ष्मी था। उसकी मति मिथ्यात्वसे मोहित थी तथा वह जिनवर-मतकी विरोधी थी। (१४६) उसने कहा कि आठ दिनोंके उत्सवकी महिमा होनेसे आगे नगरमें ब्रह्मरथ घूमे, बादमें उसके पीछे जिनरथ घूमे । (१४७) यह सुनकर मानों सिरपर वन गिरा हो इस तरह दुःख एवं अत्यन्त शोकसे सन्तप्त उसने प्रतिज्ञा की कि यदि सुसंघसे घिरा हुआ जिनरथ ही नगरमें आगे-आगे भ्रमण करेगा तब तो मैं आहार करूँगी, अन्यथा मेरा अनशन निश्चित है। (१४८-१४९) कमलदलके समान नेत्रोंवाली उसे रोती देखकर मनमें घबराया हुआ हरिषेण पूछने लगा कि माँ, तुम दुःखसे पीड़ित होकर क्यों रोती हो? (१५०) इसपर माताने जिनवरके रथ आदिके परिभ्रमणके बारेमें उसे कहा। यह सुनकर शोकरूपी महासंकटमें फँसा हुआ वह सोचने लगा कि माता और पिता ये दोनों लोकमें सबसे अधिक बड़े कहे गये हैं। लोकविरुद्ध ऐसी तनिक भी पीड़ा मैं उन्हें नहीं पहुँचा सकता । (१५१-१५२) दुःख
१. नंदीसरमहिमाए-मुः। २. जणणिं बहुदुक्खसोगसंततं-प्रत्य।
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