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________________ ८.९१] ८. दहमुखपुरिपवेसो सोऊण वयणमेयं, आरुट्ठो दहमुहो भणइ दूंयं । को वेसमणो नाम ?, को वा वि हु भ दूयं । को वेसमणो नामं?, को वा वि हु भण्णए इन्दो? ॥ ७७ ।। अम्हं परंपराए, कुलागयं भुञ्जसे तुमं नयरं । वेसमण ! मुञ्चसु लहुँ, नइ इच्छसि अत्तणो नीयं ॥ ७८ ॥ सो सेणायइ काओ, सीहायइ कोल्हुओ अबुद्धीओ । भिच्चयणबन्धवारी, जो कुणइ मए समं जुज्झं ॥ ७९ ॥ रे दूय! अवयणाई, एव भणन्तस्स 'उत्तमङ्गं ते । पाडेमि धरणिवठे, असिणा तालप्फलं चेव ॥ ८०॥ एवं भणिऊण सहसा, आयड्ढइ असिवरं परमरुट्टो । दूयस्स उच्छरन्तो, रुद्धो य बिभीसणभडेणं ॥ ८१ ॥ पाययपुरिसेण पहू ! इमेण परवयणपेसणकरेणं । दूएण मारिएण वि, सुहडाण जसो न निवडइ ॥ ८२ ॥ भिच्चस्स कोऽवराहो. संपइ विक्कीयनिययदेहस्स ? । वाया पवत्तइ पहू ! पिसायगहियस्स व इमस्स ॥ ८३ ॥ जाव य बिहीसणेणं, पसमिज्जइ दहमुहो पणामेणं । ताव चलणेहि घेत्तुं, दूओ अन्नेहि निच्छूढो ॥ ८४ ॥ हय-विहय-विप्परतो. दओ गन्तण निययसामिस्स । साहेइ समणुभूयं जं चिय भणियं दहमुहेणं ॥ ५ ॥ न य वारेइ कणिटुं. न य सम्मं कुणइ जं तुमे भणियं । नवरं चिय पडिवज्जइ, संगामं चेव दहवयणो ॥ ८६ ॥ सोऊण यवयणं. वेसमणो कोहपसरियामरिसो । भडचडयरेण महया, विणिग्गओ समरतण्हालू ॥ ८७ ॥ रह-तुरय-गयारूढा, असि-खेडय-कणय-तोमरविहत्था । गुञ्जवरपवयं ते. जक्खभडा चेव संपत्ता ॥ ८८ ॥ सोऊण आगयं सो, वेसमणं दहमुहो रणपयण्डो । भाणुसवणाइएहिं, भडेहि सहिओ विणिक्खन्तो ॥ ८९ ॥ मत्तगएसु रहेसु य, आरूढा केइ वरतुरङ्गेसु । गुञ्जवरपवयं ते, दहमुहसुहडा समणुपत्ता ॥ ९० ॥ दट ठूण परबलं ते, नक्खभडा हरिसमुक्कबुक्कारा । उच्छरिऊण पवत्ता, नाणाविहपहरणसमग्गा ॥ ९१ ॥ ऐसा कथन सुनकर गुस्से में आये हुए दशमुखने दूतसे कहा कि, वैश्रमण कौन है ? अथवा इन्द्र किसे कहते हैं ? (७७) हे वैश्रमण ! कुल परम्परासे आए हुए हमारे नगरका तुम उपभोग करते हो। यदि तुम अपनी जान बचाना चाहते हो तो उसका जल्दी हो परित्याग करो। (७) जो मेरे साथ युद्ध करता है वह मानो कौआ होकर भी बाजके जैसा आचरण तो उसका जल्दा हा परित्याग करार करता है और मूर्ख शृगाल होने पर भी सिंहकी भांति अपने आपको जताता है। वह अपने भृत्यजनोंका तथा सगे IMMER सम्बन्धियोंका शत्रु है । (७९) हे दूत-! दुर्वचन कहनेवाले तेरे सिरको ताड़के फलकी भांति तलवारसे काटकर धरती पर गिराता हूँ। (८०) ऐसा कहकर खूब गुस्सेसे युक्त उसने दूतको मारनेके लिये तलवार खींची, पर वीर विभीषणने उसे रोका । (८१) उसने कहा कि, हे प्रभो! प्राकृतजन और दूसरेका सन्देश लानेवाले इस दूतको मारनेसे सुभटोंको यश नहीं मिलता । (२) अपने शरीरको बेचनेवाले भृत्यका इसमें क्या अपराध है ? हे प्रभो ! पिशाच द्वारा गृहीत मनुष्यकी भांति इसकी जीभ चलती है। (-३) इस प्रकार मुक-झुक कर विभीषण दशमुखको शान्त कर रहा था कि दूसरे लोगोंने दूतको पैरोंसे पकड़कर बाहर फेंक दिया। (८४) क्षत-विक्षत एवं अपमानित दृत अपने स्वामीके पास गया और जो कुछ अनुभव किया था तथा दशमुखने कहा था-कह सुनाया। (८५) “न तो छोटेको (रावणको) रोका और न आपने जो कुछ कहा था उसके अनुसार ही किया। अवश्य ही दशवदन संग्राम करेगा।" (८६) दूतका ऐसा कथन सुनकर क्रोधके. कारण बढ़े हुए कदाग्रहह्वाले तथा युद्धके प्यासे वैश्रमणने बड़े भारी सुभट-समूहके साथ युद्ध-प्रस्थान किया। १८७) रथ, घोड़े और हाथी पर सवार तथा तलवार, ढाल, तीर व तोमर हाथमें लिये हुए यक्ष-सुभट गुंजावर पर्वत पर आ पहुँचे । (4) वैश्रमणका आगमन सुनकर रणप्रचण्ड रावण भानुकर्ण आदि योद्धाओं के साथ बाहर निकला । (५) उधर मत्त हाथियों पर, रथों पर तथा उत्कृष्ट घोड़ों पर आरूढ़ दशमुखके सुभट भी गुंजावर पर्वतके ऊपर आ पहुँचे । (९० शत्रुसैन्यको देखकर नानाविध प्रहरणोंसे युक्त वे यक्ष सुभट उछल-उछल कर आनन्दवश गर्जनाएँ करने लगे । (९१) कायर पुरुषोंके लिये भयोत्पादक दोनों सैन्योंके वाद्योंकी ध्वनि तथा हाथियोंकी गर्जना और घोड़ोंकी हिनहिनाइट चारों ओर फैलने १. एवं-प्रत्य० । २. तए-प्रत्य.। ३. गुजइरिपव्वरं-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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