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पउमचरियं
[८.६३. कालम्मि वच्चमाणे, जाओ मन्दोयरी' वरपुत्तो । रूवेण इन्दसरिसो, तेणं च्चिय इन्दई नाम ॥ ६३ ॥ एवं कमेण बिइओ, जाओ च्चिय मेहवाहणो पुत्तो । नयणूसवो कुमारो, परिववइ बन्धवाणन्दो ॥ ६४ ॥ एवं सयंपहपुरे, रयणासवनन्दणा कुमारवरा । भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, देवा जह देवलोयम्मि ॥ ६५ ॥ गन्तुण भाणुकण्णो, हढेण धणयस्स सन्तियं देसं । आणेइ गय-तुरङ्गे, महिलारयणाइयं सबं ॥ ६६ ॥. नाऊण य वेसमणो. निययं चिय देसपरिहवं रुट्टो । पेसेइ सुमालिस्स य, वयणालंकारयं सो ॥ ६७ ॥ गन्तूण पणमिऊण य, सुमालिणं दहमुहं च दूओ सो । अह साहिउँ पयत्तो, जे भणियं सामिसालेण ॥ ६८ ॥ अह जंपइ वेसमणो, समत्थतेलोकपायडपयावो । जह उत्तमो कुलीणो, सुमालि ! नयपण्डिओ सि तुमं ॥ ६९ ॥ एवंविहस्स होउं, न य जुत्तं तुज्झ ववसिउं एयं । नासयसि मज्झ देसं, जेणं चिय कुम्भयपणेणं ॥ ७० ॥ अहवा किं पम्हुटुं ?, जं सि तया सबनिसियरसमक्खं । इन्देण समरमज्झे, वहियं मालिं न संभरसि? ॥ ७१ ।। सो हु तुम ददुरो इव, इन्दस्स रणे भयं अयाणन्तो । दाढाकण्टयविसमे, कोलसि वयणे भुयङ्गस्स ॥ ७२ ॥ मालिवहेण न सन्ती, नाया वि हु तुज्झ अणयकारिस्स । सेसनिययाण वि वह, कप्पसि नत्थेत्थ संदेहो ॥ ७३ ॥ जइ न निवारेसि तुमं, एयं चिय बालयं अबुद्धीयं । दढनियल संजमेर्ड, चारगिहत्थं निवारे हं ॥ ७४ ॥ पायालंकारपुर, चइऊण ठिओ सि जं चिरं कालं । पुणरवि धरिणीविवरं, सुमालि ! किं पविसिउं मह सि? ॥ ७५ ।। रुट्टे मए निसायर !, इन्दे वा कोहसंगए तुज्झ । न य अस्थि समत्थे वि हु, ताणं सरणं च तेलोक्के ॥ ७६ ॥
समय व्यतीत होने पर मन्दोदरीको एक उत्तम पुत्र हुआ। वह रूपमें इन्द्र के समान था, अतः उसका नाम इन्द्रजित् रखा गया । (६३) इस प्रकार क्रमसे मेघवाहन नामका दूसरा पुत्र पैदा हुआ। आँखों के लिए उत्सवरूप तथा बन्धुजनोंके आनन्द स्वरूप वह कुमार बढ़ने लगा। (६४) इस प्रकार स्वयम्प्रभपुरमें रत्नश्रवाको आनन्द देनेवाले वे उत्तम कुमार, देवलोकमें देव जिस तरह सुखोपभोग करते हैं, उसी तरह विषयसुखका उपभोग करने लगे। (६५) रावण-वैश्रमण-युद्धका वर्णन :
एकबार धनदके पास जो देश था, उसमें जबरदस्तीसे घुसकर भानुकर्ण हाथी, घोड़े तथा महिलारन आदि सब कुछ उठा लाया । (६६) अपने देशके परिभवके बारेमें जानकर गुस्से में आये हुए वैश्रमणने अपना वचनालंकार नामक दूत सुमालीके पास भेजा। (६७) वहाँ जाकर और सुमाली एवं दशमुखको प्रणाम करके वह दूत अपने मालिकने जो कुछ कहा था उसे कहने लगा। (६८) समग्र त्रिलोकमें प्रकटित प्रतापवाले वैभ्रमणने कहा है कि हे सुमालि! तुम जैसे उत्तम और कुलीन हो वैसे नीतिपण्डित भी हो। (६९) ऐसे होने पर भी तुमने यह अच्छा नहीं किया, क्योंकि तुमने कुम्भकर्णके द्वारा मेरे देशका नाश कराया है। (७०) अथवा सभी राक्षसोंके समक्ष इन्द्रने युद्ध में मालीको जो मार डाला था, क्या वह तुम भूल गए? या याद नहीं आता ? (७१) युद्धमें इन्द्रके भयसे अनजान तुम उस मेंढकके समान हो जो काँटेके समान विषम दाढवाले सर्पके मुह में खेलता है !(७२) ऐसा मालूम होता है कि नीति विरुद्ध आचरण करनेवाले तुम्हें मालीके वधसे शान्ति नहीं हुई, इसीलिए अवशिष्ट स्वजनोंका तुम बध चाहते हो, इसमें कोई सन्देह नहीं। (७३) यदि तुम अपने इस मूर्ख बालकको नहीं रोकोगे तो मजबूत जंजीरसे बाँधकर और कारागृहमें बन्द करके मैं उसे रोकूँगा। (७४) हे सुमालि ! पातालालंकारपुरीका त्याग करके तुम यहाँ चिरकालसे रहते हो, अब क्या पृथ्वीके बिलमें प्रवेश करना चाहते हो ? (७५) हे निशाचर ! मुझ इन्द्रके रुष्ट होने पर या क्रुद्ध होने पर तीनों लोकमें ऐसा कोई भी समर्थ नहीं है जो तुम्हारी रक्षा कर सके या तुम्हें शरण-दे सके । (७६)
१. काहसि ।
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