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पउमचरियं
[८. ३४सुरसुन्दरस्स दुहिया. कन्ना पउमावइ ति नामेण । वरपउमसरिसवयणा, सिरि ब पउमालयनिवासी ॥ ३४॥ अन्ना बुहस्स दुहिया, मणवेगाकुच्छि संभवा बाला । नामेण असोगलया, कुसुमलया चेव सोहन्ती ॥ ३५॥ कणयनरिन्दस्स सुया, संझादेवीऍ कुच्छिसंभूया । विज्जुसमसरिसवण्णा, नामं विज्जुप्पभा कन्ना ॥ ३६॥ एवं चिय कन्नाओ, बहुयाओ रूव-जोबणधरीओ । मोत्तण उदयखेड्डु', तं वरपुरिसं पलोयन्ति ॥ ३७ ॥ अह दहमुहेण ताओ, गन्धवविहीऍ पवरकन्नाओ । रूव-गुणसालिणोओ, परिणीयाओ सहरिसेणं ॥ ३८ ॥ गन्तूण तुरियतुरियं, कञ्चुइणा अमरसुन्दरस्स तया । सिटुं च कुमारीणं, वरकल्लाणं जहावत्तं ॥ ३९ ॥ कोवि पहु ! एस वीरो, सुन्नं पिव तिहुयणं विचिन्तेन्तो । अगणियपडिवक्खभओ. कीलइ कन्नाण मज्झम्मि ॥ ४० ॥ सोऊण वयणमेयं, रुट्ठो सुरसुन्दरो महाराया । रहचक्कवालसामी, सन्नद्धो कणयवुहसहिओ ॥ ४१ ॥ अह निग्गओ महप्पा, तस्सुवरि विविवाहणसमग्गो । अम्बरतलेण वच्चइ, आउहकिरणेसु दिप्पन्तो ॥ ४२ ॥ अम्बरतलेण एन्तं, दळूण बलं भणन्ति कन्नाओ । दहमुह ! लहुं पलायसु, रक्खसु अइदुल्लहे पाणे ॥ ४३ ॥ सोऊण बयणमेयं, दट ठूण य परबलं समासन्ने । अह जंपइ दहवयणो, गवियहसियं च काऊण ॥ ४४ ॥ गरुडस्स किं व कीरइ, बहुएसु वि वायसेसु मिलिएसु ? । मयगन्धमुबहन्ते, किं न हणइ केसरी हत्थी ? ॥ ४५ ॥ नाऊण तस्स चित्तं, जइ एवं नाह मन्नसे गरुयं । तो अम्ह रक्खसु पहू ! नियए पिइ-भाइसंबंन्धे ॥ ४६ ॥ भणिऊण वयणमेयं, उप्पइओ नहयलं विमाणत्थो । अह ताण सवडहुत्तो, रणरसतण्हालुओ सहसा ॥ ४७ ॥ ताव य बलं समत्थं, सन्दण-वरगय-तुरङ्ग-पाइक्कं । उच्छरिऊण पवत्तं. दहवयणं समरमज्झम्मि ॥ ४८ ॥
मुञ्चन्ति सत्थवरिसं, तस्सुवरिं खेयरा सुमच्छरिया । पवयवरस्स नज्जइ, धारानिवह पओवाहा ॥४९॥ नामकी पुत्री, दूसरी मनोवेगाकी कुक्षिसे उत्पन्न तथा कुसुमलताकी भाँति शोभित अशोकलता नामकी बुधकी कन्या, तथा सन्ध्यादेवीके गर्भसे उत्पन्न और विद्युत्के समान सुन्दरवर्णवाली विद्यत्प्रभा नामकी कनकनरेन्द्रकी पुत्री-ये तथा दूसरी बहुतसी रूप एवं यौवनसे युक्त कन्याएँ जलक्रीड़ाका परित्याग कर उस उत्तम पुरुषको देखने लगीं। (३४-३७ ) इसके पश्चात् हर्षयुक्त दशमुखने रूप एवं गुणशाली उन उत्तम कन्याओंके साथ गान्धर्व विधिसे विवाह किया। (३८) तब जल्दी जल्दी जाकर कंचुकिने उन कुमारियोंका जैसा विवाह हुआ था वह अमरसुन्दरको कह सुनाया कि, हे प्रभो! यह कोई ऐसा वीर है जो त्रिभुवनमें मानो कोई है ही नहीं ऐसा मानकर तथा शत्रुके भयकी परवाह न करके कन्याओंके बीच क्रीडा कर रहा है। ( ३९-४०) ऐसा कथन सुनकर रथचक्रवालका स्वामी महाराजा सुरसुन्दर रुष्ट हो गया और बाणोंके समूहसे लैस हो गया। (४१) विविध वाहनोंके साथ वह महात्मा उस पर आक्रमण करनेके लिए अपने नगरसे बाहर निकला। मायुधोंसे निकलनेवाली किरणोंसे देदीप्यमान वह आकाशमार्गसे चल पड़ा । (४२) आकाशमार्गसे आती हुई सेनाको देखकर कन्याओने कहा-“हे दशमुख! तुम यहांसे जल्दी पलायन करो और अपने अतिदुर्लभ प्राणोंकी रक्षा करो।(४३) देसा सुनकर तथा शत्रुसैन्यको समीप देखकर दर्पके साथ हँसकर दशवदनने कहा कि बहुतसे पक्षी मिलकर भी गरुड़का क्या कर सकते हैं? पदकी गन्ध धारण करनेवाले हाथीको क्या सिंह नहीं मारता ? (४४-४५) उसके मनकी बात जानकर उन कन्याओंने कहा कि, हे नाथ ! यदि आप अपनेको इतना समर्थ समझते हैं तो हमारे पिता, भाई व सम्बन्धियोंकी रक्षा करना । (४६)
'वैसा ही होगा' ऐसा कहकर और विमानमें बैठकर युद्धका प्यासा वह सहसा उनका सामना करनेके लिए आकाशमें उड़ा। (४७) उस समय रथ, उत्तम हाथी, घोड़े तथा पैदल-समन सैन्य उछल उछलकर दशवदनके साथ युद्धभूमिमें लड़ने लगा । (४८) मात्सर्ययुक्त खेचर उसके ऊपर शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे। उस समय पर्वतके ऊपर बादल मुसलाधार वर्षा कर रहे हों ऐसा प्रतीत होता था। (४९) समर्थ दशाननने युद्धमें अपने ऊपर गिरनेवाले आयुधोंके समूहका निवारण
१. उदकक्रीडाम् ।
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