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________________ ८.३३ ] ८. दहमुहपुरिपवेसो २२ ॥ २३ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, दसाणणो निणहरं समल्लीणो । पूयं काऊण तओ, अभिवन्दइ निणवरं तुट्टो ॥ २० ॥ तत्येव सयण- परियण-आणन्दुब्भडवरं निओगेणं । वत्तं पाणिग्गहणं, अणन्नसरिसं वसुमईए ॥ २१ ॥ पत्तो सयंषहपुरं, तीऍ समं दहमुहो पुलइयङ्गो । मन्नन्तो पवरसिरिं, समत्थभुवणागयं चेव ॥ तत्तो मओ य राया, निययपुरं पत्थिओ सपरिवारो । दुहियाविओगजणियं, सोग-पमोयं च वहमाणो ॥ जाया वरम्गमहिसी, एत्तो मन्दोयरी विसालच्छी । तीए गुणाणुरत्तो, न गणइ कालं पि वच्चन्तं ॥ सो तत्थ विष्णसेउं, इच्छइ विज्जाण विरिय माहप्पं । उच्छाहनिच्छियमणो, वावारे बहुविहे कुणइ ॥ एक्को अणेयरूवं, काऊणऽल्लियइ सबजुवईणं । सूरो ब कुणइ तावं, ससि व जोन्हं समुबहइ ॥ अलोब मुयइ जाला, वरिसह मेहो व तक्खणुप्पन्नो । वाउ व चालइ गिरिं, कुणइ सुरिन्दत्तणं सहसा ॥ होइ समुहोब फुडं, मत्तगइन्दो खणेण वरतुरओ । दूरे आसन्नो च्चिय, खणेण अहंसणो होइ ॥ कुणइ महन्त रूवं, खणेण सुहुमत्तणं पुण उवेइ ! एवं लोलायन्तो, मेहवरं पचयं पत्तो ॥ पेच्छइ य तत्थ वावि, निम्मलनलतणुतरङ्गकयसोहं । कुमुउप्पलसंछन्नं, महुयरगुञ्जन्तमहुरसरं ॥ तत्थ य कीलन्तीणं, पेच्छइ कन्नाण छस्सहस्साइं । विज्जाहरधूयाणं, लायण्णसिरी वहन्तीणं ॥ ताहिं पि सो कुमारो, दिट्ठो वरहार - मउडकयसोहो । जाणविमाणारूढो, सुरवइलीलं विडम्बन्तो ॥ ३२ ॥ एवं भणन्ति ताओ, जइ न हवइ एस अम्ह भत्तारो । मण - नयणनिव्वुइकरो, तो अकयत्थो इमो नम्मो ॥ ३३ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ २४ ॥ २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ पुत्रीको लेकर वह सुभटसैन्यके साथ यहाँ पर अविलम्ब ही आये हैं । (१९) उनका ऐसा कथन सुनकर प्रसन्न हो दशानन जिनमन्दिर में गया और पूजन करनेके पश्चात् वह जिनवरको वन्दन करने लगा। (२०) वहीं पर विधिपूर्वक स्वजन एवं परिजनोंको अत्यन्त आनन्ददायी तथा पृथ्वी पर अनन्यसदृश ऐसा पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ । (२१) समस्त लोकोंसे आई हुई लक्ष्मी मानता हुआ वह पुलकित शरीरवाला दशमुख उसके साथ स्वयंप्रभ नगर में आ पहुँचा । (२२) इसके अनन्तर मय राजाने भी पुत्रीके वियोगजन्य दुःख और प्रमोदको धारण करके परिवार के साथ अपने नगरकी ओर प्रस्थान किया । (२३) विशाल नेत्रोंवाली मन्दोदरी पटरानी हुई। उसके गुणोंमें अनुरक्त दशमुख व्यतीत होनेवाले कालकी भी परवाह नहीं करता था । (२४) ८७ उत्साही तथा सुस्थिर मनवाले उसको विद्याओं का वीर्य एवं माहात्म्य जाननेकी इच्छा हुई, अतः वह उनका अनेक प्रकारसे वह उपयोग करने लगा । (२५) एक होने पर भी अनेक रूप करके वह सब युवतियोंका आलिंगन करता था । -सूर्यकी तरह कभी वह गरमी फैलाता था तो चन्द्रकी भाँति कभी चाँदनी धारण करता था । (२६) वह आगकी भाँति ज्वाला छोड़ता था, उसी समय उत्पन्न बादलको भाँति वर्षा करता था और वायुकी तरह पर्वतको चलायमान करता था तो कभी सहसा सुरेन्द्रका रूप धारण करता था । (२७) वह कभी समुद्रकी भाँति विशालरूप धारण करता था तो कभी क्षण भरमें मदोन्मत्त हाथी या उत्तम घोड़ा बन जाता था। कभी दूर, कभी नजदीक और कभी तो क्षणभर में अदर्शनीय हो जाता था । ( २८ ) वह कभी महानरूप बनाता था और क्षण भरमें सूक्ष्म रूप धारण कर लेता था । Jain Education International इस प्रकार लीला करता हुआ वह मेघवर नामक पर्वतके पास आ पहुँचा । ( २९ ) वहाँ उसने निर्मल जलमें उठनेवाली छोटी छोटी लहरोंवाली, कुमुद एवं कमलोंसे व्याप्त तथा भौरोंके गुंजनसे मधुर स्वरयुक्त एक बावड़ी देखी। ( ३० ) वहाँ पर उसने खेलती हुई, लावण्य एवं श्रीसम्पन्न छ हजार विद्याधर कन्याएँ देखीं । ( ३१ ) उन्होंने भी सुन्दर हार एवं मुकुटसे शोभित, विमानमें आरूढ़ तथा सुरपति इन्द्रकी लीलाका भी तिरस्कार करनेवाले उस कुमारको देखा । ( ३२ ) उसे देखकर वे ऐसा कहने लगीं कि मन एवं आँखको सुख पहुँचानेवाला यह यदि हमारा स्वामी नहीं होगा तो हमारा यह जन्म व्यर्थ है । ( ३३ ) सुरसुन्दरकी उत्तम पद्मके समान मुखवाली तथा पद्मसरोवरमें निवास करनेवाली लक्ष्मी जैसी पद्मावती १. वाऊणं नियइ – प्रत्य० । २. विलंबतो प्रत्य० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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