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________________ पउमचरियं [७.१५३दिदा कुमारसीहा, कयविणया ते गुरुं समल्लीणा । सबै वि य एगटुं, वच्चन्ति सयंप नयरं ॥ १५३ ॥ दटठण केकसी वि य, पुत्ते वरहार-कुण्डलाहरणे । पुलइयरोमश्चइया, न माइ नियगेसु अङ्गेसु ॥ १५४ ॥ पत्ता सयंपभपुरं, भवणालीविविहरयणकयसोहं । ऊसियधया-वडार्ग, सम्गविमाणं व ओइण्णं ॥ १५५॥ मज्झट्टियम्मि सूरे, मज्जणयविही कया कुमाराणं । पडुपडह-मुरवबहुरव-जयसदुग्घुष्टुगम्भीरा ।। १५६ ।। व्हाया कयबलिकम्मा, सबालंकारभूसियसरीरा । गुरुयणकयप्पणामा, दिन्नासीसा सुहनिविद्या ॥ १५७ ॥ एवं तु संकहाए, समागयं मालिमरणमुबेयं । जंपन्तो य सुमाली, सहसा ओमुच्छिओ पडिओ ॥ १५८ ॥ चन्दणजलोल्लियङ्गो. आसत्थो पुच्छिओ दहमुहेणं । केण निमित्तेण गुरू 1, जेणेयं पाविओ दुक्ख ॥ १५९ ॥ अह साहिउं पयत्तो, पुत्तय ! निसुणेहि दिन्नकण्ण-मणो । जह अम्ह वसण-दुक्खं, उप्पन्नं एरिसं अङ्गे ॥ १६० ॥ लङ्कापुरीऍ सामी, आसि पुरा मेहवाहणो राया । तस्स इमो सुविसालो, रक्खसवंसो समुप्पन्नो ॥ १६१ ।। एत्थेव महावंसे, लकानयरीऍ खेयरिन्दाणं । वोलीणाइँ कमेणं, बहुयाई सयसहस्साई ॥ १६२ ॥ जाओ चिय तडिकेसो. तस्स सुकेसो सुओ समुप्पन्नो । तस्स वि य होइ माली, पुत्तो हं मालवन्तो य ॥ १६३ ॥ जो आसि मज्झ जेट्टो. लकापुरिसामिओ विजियसत्त् । जेणेयं भरहद्धं, वसीकयं पुरिससीहेणं ॥ १६४ ॥ सो माली मह पुरओ, सहसारसुएण पुत्त ! इन्देणं । वहिओ संगाममुहे, रहनेउरचक्कवालपुरे ॥ १६५ ॥ तस्स भएण पविठ्ठा, अम्हे पायालपुरवरं दुग्गं । नयरं चिय सो भुञ्जइ, तं अम्ह कुलोचियं नयरं ॥ १६६ ॥ अह अन्नया गएणं, सम्मेए बन्दिऊण निणयन्दं । तत्थेव पुच्छिओ मे, अइसयनाणी समणसीहो ॥ १६७॥ पितामह माल्यवान् , ऋक्षरजा, आदित्यरजा तथा रत्नश्रवा आदि सब आये। (१५२) उन्होंने विनयशील तथा गुरुभक्त उन सिंह जैसे कुमारोंको देखा। वे सब इकट्ठे होकर स्वयम्प्रभ नगरकी ओर चले । (१५३) केकसी भी उत्तम हार, कुण्डल व आभरणोंसे युक्त पुत्रोंको देखकर हर्षसे रोमांचित हो गई। उसका हर्ष उसके शरीरमें समाता नहीं था । (१५४) वे सब मकानोंकी पंक्तियों में विविध रत्नों द्वारा की गई शोभावाले, ध्वजा एवं पताकाओंसे व्याप्त तथा मानो स्वर्गका विमान नीचे उतर आया हो ऐसे स्वयम्प्रभपुरमें आ पहुँचे । (१५५) सूर्यके आकाशके मध्यमें स्थित होने पर कुमारोंकी उत्तम ढोल व मृदंगकी ध्वनिसे शब्दायमान तथा 'जय' शब्दके उद्घोषसे गम्भीर, ऐसी स्नानविधि की गई। (१५६) स्नान एवं बलिकर्म करके सब अलंकारोंसे भूषित शरीरवाले उन्होंने गुरुजनोंको प्रणाम किया। आशीर्वाद प्राप्त करके वे बादमें सुखपूर्वक बैठे । ( १५७) इस प्रकार वे वातीलाप कर रहे थे कि वहां सुमाली आया और मालीके मरणके उद्वेगकर समाचारको कहता कहता सहसा मूर्छित होकर नीचे गिर पड़ा। (१५८) चन्दनका जल शरीर पर छाँटनेसे होशमें आये हुए उससे दशमुखने पूछा कि किस कारण आपको इतना बड़ा दुःख सहना पड़ा है ? (१५९) यह सुनकर वह कहने लगा कि हे पुत्र! मेरे शरीरमें जिस आपत्तिके कारण ऐसा दुःख उत्पन्न हुआ है उसके बारेमें कान और मन लगाकरतू सुन । (१६०) प्राचीन कालमें लंकानगरीका स्वामी मेघवाहन नामका राजा था। उससे यह सुविशाल राक्षसवंश उत्पन्न हुआ है। (१६१) इसी महावंशमें और लंकानगरीमें अनेक लाख विद्याधर राजा क्रमशः हो गये । (१६२) उसी वंशमें तडित्केशी हुआ, उसका लड़का सुकेश नामका हुआ। उसीके माली और मैं-माल्यवान्-हम दो पुत्र थे । (१६३ ) लंका नगरीका स्वामी, मेरा ज्येष्ठ भाई, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेवाला तथा जिस पुरुषसिंहने आधे भारत खण्डको अपने बस कर लिया था ऐसे उस मालीको मेरे सम्मुख ही युद्ध भूमिमें, रथनूपुर-चक्रवालपुरमें, सहस्रारके पुत्र इन्द्रने मार डाला है। (१६४-१६५) उसके भयसे हमने पातालपुर नामके उत्तम दुर्गमें प्रवेश किया है और जो हमारा कुलपरम्परासे प्राप्त नगर था उसका उपभोग अब वह करता है। (१६६) एक बार सम्मेतशिखरके ऊपर जिनवरको वन्दन करनेके लिए मैं १. कयपरिकम्मा-प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org'
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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