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८. दहमुहपुरिपवेसो
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कइया होही अम्हं, लकानयरीसमासयनिवेसो ? । अइगरुयदारुणस्स य, वोच्छेओ बसणदुक्खस्स ? ॥ १६८ ॥ भणियं च मुणिवरेणं, जो ते पुत्तस्स होहिई पुत्तो । सो निययपुरि सवसं, काही नत्थेत्थ संदेहो ॥ १६९ ॥ सो अद्धभरहसामी. पयाव-बल-विरिय-सत्तसंपन्नो । पडिवक्खखयन्तकरो, होही समरुज्जयमईओ ॥ १७० ॥ तं एयं मुणिभणियं, जायं निस्संसयं नहुद्दिढें । रक्खसर्वसस्स तुमं, होही कित्तीधुराधारो ॥ १७१ ॥ सोऊण गुरुवएसं, तुट्टो चिय दहमुहो वियसियच्छो । सिद्धाण नमोक्कारं, करेइ मउलञ्जली सिरसा ॥ १७२ ।। धम्म काऊण बुद्धा नरवरवसहा होन्ति विक्खायकित्ती, दूरं भुञ्जन्ति सोक्खं पवरसिरिधरा लक्खणुक्किण्णदेहा । बोहिं पावेन्ति धीरा परभवमहणी मोक्खमग्गाहिलासी, तम्हा ठावेह चित्तं ससियरविमले सासणे संजयाणं ॥ १७३ ॥
॥ इति पउमचरिए दहमुहविज्जासाहणो नाम सत्तमो उहेसो समत्तो॥
८. दहमुहपुरिपवेसो एत्तो वेयड्डनगे, दक्खिणसेढीऍ सुरयसंगीए । नयरे मओ ति नामं, हेमवई नाम से भज्जा ॥ १ ॥ तीए गुणाणुरूवा, धूया मन्दोयरि ति नामेणं । नवनोबणसंपन्ना, मएण दिट्ठा विसालच्छी ॥ २ ॥
चिन्तं खणेण पत्तो, सद्दावेऊण मन्तिणो सिग्छ । अह देमि कस्स कन्नं ? एयं मे पुच्छिया भणह ॥ ३ ॥ गया था। वहीं पर एक अतिशय ज्ञानी और श्रमणोंमें सिंह जैसे पराक्रमी एक साधुसे मैंने पूछा कि लंकानगरी कब हमारा अग्यस्थान बनेगी और अत्यन्त भारी और भयंकर इस आपत्तिजन्य दुखका उच्छेद कब होगा ? (१६७-१६८ ) यह सुनकर उस निवरने कहा कि जो तुम्हारे पुत्रका पुत्र होगा, वह अपनी नगरी पुनः स्वाधीन करेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। (१६९) प्रताप, बल, वीर्य और सामर्थ्यसे युक्त, शत्रुओंका विनाश करनेवाला तथा युद्ध में सतत उद्यत रहनेकी बुद्धिवाला वह आधे भरतक्षेत्रका स्वामी होगा। (१७०) मुनिका ऐसा कथन सुनकर मैं निःशंक हुआ। जिस प्रकार मुनिने कहा था वैसे ही तुम राक्षस वंशकी कीर्तिरूपी धुराके आधार बनोगे । (१७१)
गुरुजनका ऐसा कथन सुनकर विकसित नेत्रोंवाला दशमुख प्रसन्न हुआ। बादमें उसने हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर सिद्धोंको नमस्कार किया ! (१७२) विख्यात कीर्तिवाले, बुद्धिशाली, उत्तम लक्ष्मीको धारण करनेवाले तथा शुभ लक्षणोंसे व्याप्त देहवाले श्रेष्ठ मनुष्य धर्मका आचरण करनेसे चिरकालपर्यन्त सुखोपभोग करते हैं, और मोक्षकी अभिलाषावाले धीर पुरुष दूसरे जन्मोंका नाश करनेवाला ज्ञान प्राप्त करते हैं। अतः संयमीजनोंके चन्द्रमाके किरणोंके समान विमल शासनमें तुम अपना चित्त लगाओ। (१७३)
। पद्मचरितमें दशमुखकी विद्या साधना नामक सातवाँ उद्देश समाप्त हुआ ।
८. दशमुखका लंकाप्रवेश रावणका मन्दोदरीके साथ विवाह- .
इधर वैताव्यपर्वतकी दक्षिणश्रेणीमें आये हुए सुरतसंगीत नामक नगरमें मय नामका राजा रहता था। उसकी भार्या हेमवती थी। (१) उसकी नवीन यौवनसे सम्पन्न तथा गुणवती मन्दोदरी नामकी एक लड़की थी। एक दिन विशाल नेत्रोंवाली उसे मयने देखा। (२) क्षणभर उसने सोचा। बाद में शीघ्र ही मन्त्रियोंको बुलाकर उसने पूछा कि तुम मुझे कहो कि यह कन्या किसे दूँ ? (३) मन्त्रियोंने बलसे समृद्ध अनेक विद्याधरोंके बारेमें कहा, तब दूसरेने
१. चेव से-मुः।
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