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७. १५२]
७. दहमुहविनासाहणं मणथम्भणी अखोहा, विज्जा संवाहणी सुरद्धंसी । कोमारी वहकारी, सुविहाणा तह तमोरूवा ॥ १३७ ॥ विउलाअरी य दहणी, विज्जा सुहदाइणी रओख्वा । दिणरयणिकरी, वज्जोयरी य एत्तो समादिट्टी ॥ १३८ ॥ अजरामरा विसन्ना. जलथम्भिणि अम्गिथम्भणी चेव । गिरिदारिणी य एत्तो, विज्जा अवलोवणी चेव ॥ १३९ ॥ अरिविद्धंसी घोरा. वीरा य भुयङ्गिणी तहा वरुणी। भुवणा विज्जा य पुणो, दारुणि मयणासणीय तहा ॥१४०॥ रवितेया भयजणणी, ईसाणी तह भवे जया विजया । बन्धणि वाराही वि य, कुडिला कित्ती मुणेयबा ॥ १४१ ॥ वाउन्भवा य सत्ती (न्ती) कोबेरी सङ्करी य उद्दिट्टा । जोगेसी बलमहणी, चण्डाली वरिसिणी चेव ॥ १४२ ।। विज्जाउ एवमाई, सिद्धाओ तस्स बहुविहगुणाओ। थेवदिवसेसु सेणिय !, अल्लीणाओ दहमुहस्स ॥ १४३ ॥ सबारुहरइविद्धी, आगासगमा य जम्भणी चेव । निदाणी पञ्चमिया, सिद्धा चिय भाणुकण्णस्स ॥ १४४ ॥ सिद्धत्था अरिदमणी, निवाघाया खगामिणी पमुहा । एया वि हु विज्जाओ, पत्ताउ बिभीसणेण तया ॥ १४५ ॥ अह ते समत्तनियमा, जक्खाहिवईण तत्थ तुटेणं । सम्माणिय-कयपूया, दिन्नासीसा तओ भणिया ॥ १४६ ॥ दहमुह ! बन्धवसहिओ, महइमहाइड्डि-सत्तसंपन्नो । पडिवक्खअपरिभूओ, जीवसु कालं अइमहन्तं ॥ १४७ ॥ अन्न पि एव निसुणसु, जम्बुद्दीवे समुद्दपेरन्ते । सच्छन्दसुहविहारी, हिण्डसु मज्झं पसाएणं ॥ १४८ ॥ कइलाससिहरसरिसोवमेसु भवणेसु संविरायन्तं । दिवं सर्यपभपुरं, धणएण कयं दहमुहस्स ॥ १४९ ॥ काऊण य सम्माणं, निययपुरं पत्थिओ महाजक्खो। सिग्धं च रक्खसभडा, संपत्ता सबपरिवारा ॥ १५० ॥ तत्तो महसवं ते, करेन्ति अच्चन्तहरिसियमईया । बहुतूरसद्दकलयल-सिद्धवहूमङ्गलुग्गीयं ॥ १५१ ॥
संपत्तो य सुमाली, पियामहो मालवन्तनामो य । रिक्खरया-ऽऽइच्चरया, रयणासवमाइया सबे ॥ १५२ ॥ १९-दहनी, २०-शुभदायिनी, २१--रजोरूपा, २२-दिन-रजनीकरी, २३-वनोदरी, २४-समादिष्टी, २५-अजरामरा, २६-विसंज्ञा, २७-जलस्तम्भनी, २८-अग्निस्तम्भनी, २९-गिरिदारणी, ३०-अवलोकनी, ३१-अरिविध्वंसिनी, ३२-घोरा, ३३-वीरा, ३४-भुजंगिनी, ३५-वारुणी, ३६-भुवना, ६-दारुणी, ३८-मदनाशनी, ३९--रवितेजा, ४०-भयजननी, ४१-ऐशानी, ४२-जया, ४३--विजया, ४४-बन्धनी, ४५-बाराही, ४६-कुटिला, ४७-कीर्ति, ४८-बायुद्धवा, ४९-शान्ति, ५०-कौवेरी, ५१-शंकरी, ५२-योगेश्वरी, ५३ बलमथनी, ५४-चाण्डाली, ५५-वर्षिणी । (१३५-१४२)
हे श्रेणिक ! ऐसे ही दुसरी अनेकविध गुणोंवाली विद्याएँ दशमुखको सिद्ध हुई और उसमें थोड़े ही दिनों में लीन हो गई । (१४३) भानुकर्णको सर्वारोहिणी, रतिवृद्धि, आकाशगामिनी, जम्भिणी तथा पाँचवीं निद्राणी ये पाँच विद्याएँ सिद्ध हुई। (१४४) उस समय विभीषणको भी सिद्धार्था, अरिदमनी, निर्व्याघाता और आकाशगामिनी ये चार विद्याएँ सिद्ध हुई। (१४५) नियम समाप्त होने पर सन्तुष्ट यक्षाधिपतिने उनका सम्मान करके पूजा की तथा आशीर्वाद देकर कहाहेशमुख ! तुम्हें अत्यन्त महान् ऋद्धि और शक्ति प्राप्त हुई है। तुम शत्रुओंके द्वारा अपराजित हो। तुम अपने भाइयों के साथ सुचिर काल पर्यन्त जीते रहो ! (१४६-१४७) दूसरी बात भी सुनो। समुद्र पर्यन्त फैले हुए जम्बूद्वीपमें तुम मेरे प्रसादसे स्वच्छन्द एवं सुखपूर्वक विहार कर सकते हो। (१४८)
धनदने कैलास शिखरके जैसे समुन्नत भवनोंसे शोभित स्वयंप्रभ नामका एक नगर दशमुखके लिये बसाया। (१४९) रावणका सम्मान करके महायक्ष अनाहतने अपने नगरकी ओर प्रस्थान किया। उधर राक्षस सुभट भी अपने समग्र परिवारके साथ वहाँ शीघ्र ही आ पहुँचे । (१५०) इसके पश्चात् अत्यन्त आनन्दविभोर उन्होंने अनेकविध वाद्योंकी ध्वनिसे शब्दायमान तथा सिद्धांगनाओंके मंगल गीतोंसे गानमय ऐसा महोत्सव मनाया । (५५१) वहाँ सुमाली,
१. विज्बा चिय-प्रत्य.।
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