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पउमचरियं
[७.१२२हय-विहय-विप्परद्धं, कुसुमन्तपुरं हटेण काऊणं । तो बन्धिऊण ठविओ, पुरओ रयणासवो तेसि ॥ १२२ ॥ अन्तेउर विलावं. कुणमाणं बन्धवा य दीणमुहा । खररज्जुकढिणबद्धा, ते वि य पुरओ उवट्टविया ॥ १२३ ।। केसेसु कड्डिऊणं, माया वि य नियलसंजया सिग्छ । ठविया य ताण पुरओ, मेच्छेहि अणज्जसीलेहिं ॥ १२४ ॥ हा पुत्त ! परित्तायह, पल्ली हं पेसिया पुलिन्देहिं । होऊण समरसूरा, कह एयं परिहवं सहह ॥ १२५ ॥ चोद्दसथणसोत्ताणं, जे पुत्ता! पाइया मए खीरं । तं कुपुरिसेहि संपइ, एक्कस्स वि निक्कओ न कओ॥ १२६ ॥ एएसु य अन्नसु य, झाणविरोहो जया न संभूओ । खग्गेण सिरं छिन्नं, पुरओ रयणासवस्स तया ॥ १२७॥ सबिन्दियसंवरियं. चित्तं न य बाहिरं समल्लीणं । झाणं गिरिन्दसरिसं, निकम्पं दहमुहस्स ठियं ॥ १२८ ॥ नइ तं करेइ झाणं, सुद्धं इह संजओ य सद्धाए । छेत्तण कम्मबन्धं, पावइ सिद्धिं न संदेहो ॥ १२९ ॥ एत्थन्तरे सहस्सं. विज्जाणं विविहरूवधारीणं । बद्धञ्जलिमउडाणं, सिद्ध चिय दहमुहस्स तया ॥ १३०॥ कस्स वि चिरस्स सिज्झइ, विज्जा अइदुक्खदेहपीडाए । कस्स वि लहुं पि सिज्झइ, सुचरियकम्माणुभावेणं ।। १३१ ॥ काले सुपत्तदाणं, सम्मत्तविसुद्धि-बोहिलाभं च । अन्ते समाहिमरणं, अभवनीवा न पावन्ति ॥ १३२ ॥ सबायरेण एवं, पुण्णं कायवयं मणूसेणं । पुण्णेण नवरि लब्भइ, कम्मसमिद्धी अ सिद्धी य ।। १३३ ।।
पुवकयं निम्मायं, सेणिय! कम्मप्फलं दहमुहस्स । कालम्मि य संपुण्णे सिद्धाउ महन्तविज्जाओ ॥ १३४ ॥ . एयासि विज्जाणं, नामविभत्तिं सुणाहि एगमणो । आगारागामिणी कामदाइणी कामगामी य ॥ १३५॥
विज्जा य दुण्णिवारा, जयकम्मा चेव तह य पन्नत्ती । अह भाणुमालिणी विय, अणिमा लधिमा य नायबा ॥ १३६ ॥ (१२१) जबरदस्तीसे कुसुमान्तपुरको क्षत-विक्षत एवं अत्यन्त पोड़ित करके तथा रत्नश्रवाको बाँधकर उनके सामने हाजिर किया। (१२२) विलाप करते हुए अन्तःपुरको और दोनमुख बन्धुजनोंको कठोर रस्सीसे मजबूतीके साथ बाँधा
और उन्हें भी उनके सम्मुख उपस्थित किया। (१२३) अनार्य शीलवाले म्लेच्छोंने बेड़ीमें जकड़ी हुई माताको भी बालोंसे घसीटकर उनके सामने ला पटका । (१२४) हे पुत्रो! रक्षा करो। शबर मुझे उनको पल्ली (छोटा गाँव ) में ले जा रहे हैं। तुम युद्ध करनेमें शूरवीर होने पर भी ऐसा परिभव क्यों सहते हो ? (१२५) हे पुत्रो! अपने स्तनके चौदह स्रोतोंसे मैंने तुम्हें दूध पिलाया है, किन्तु उनमें से एकका भी तुम इस समय इन कुपुरुषोंसे मुझे छुड़ाकर बदला नहीं चुका रहे हो। (१२६) इनसे तथा ऐसे ही दूसरे कारणोंसे जब ध्यानका विनाश न हो सका तब उसके सामने ही रत्नश्रवाका सिर काट डाला । (१२७) ऐसा होने पर भी सब इन्द्रियोंमें संवर करनेवाला चित्त बहिर्मुख न हुआ। दशमुखका ध्यान गिरीन्द्रके समान निष्कम्प था । (१२८) यदि कोई संयमी साधु श्रद्धापूर्वक वैसा शुद्ध ध्यान यहाँ करे तो वह कर्मरूपी बन्धनको नष्टकर सिद्धि प्राप्त कर सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। (१२९) इस बीच विविध रूपधारी तथा सिर पर हाथ जोड़ी हुई हजारों विद्याएँ दशमुखको सिद्ध हुई। (१३०) अत्यन्त दुःख और शारीरिक पीड़ासे किसीको चिरकालमें विद्या सिद्ध होती है और किसीको पुण्यकर्मके फलस्वरूप शीघ्र ही । (१३१) यथासमय सुपात्रको दान, सम्यक्त्व एवं विशुद्ध ज्ञानका लाभ तथा अन्तमें समाधिपूर्वक मरण-ये अभव्य जीव प्राप्त नहीं करते । (१३२) अतः मनुष्यको सम्पूर्ण आदरके साथ पुण्य-कर्म करना चाहिए, क्योंकि पुण्यसे ही कर्मजन्य समृद्धि तथा मोक्ष प्राप्त होता है। (१३३) हे श्रेणिक! पूर्वकृत कर्मका जो फल निर्मित हुपा था वह समय आने पर सम्पूर्ण हुआ और बड़ी-बड़ी विद्याएँ सिद्ध हुई । (१३४)
इन विद्याओंके अलग-अलग नाम तुम ध्यानसे सुनो-१-आकाशगामिनी, २-कामदायिनी, ३-कामगामी, ४-दुर्निवारा, ५-जयकर्मा, ६-प्रज्ञप्ति, ७-भानुमालिनी, ८-अणिमा, ९-लघिमा, १०-मनःस्तम्भनी, ११-अक्षोभ्या, १२-संवाहिनी, १३-सुरध्वंसी, १४-कौमारी, १५-वधकारिणी, १६-सुविधाना, १७- तमोरूपा, १८-विपुलाकरी,
१. निष्क्रयः। २. पद्मचरितमें 'जगत्कम्पा' है।
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