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________________ ७. १२१] ७. दहमुहविज्जासाहणं अट्ठक्खरा य विज्जा, सिद्धा से लक्खजावपरिपुण्णा । नामेण सबकामा, सा वि य सिद्धा दिणद्धेणं ॥ १० ॥ जविऊण समाढत्ता. विजा वि हु सोलसक्खरनिबद्धा । दहकोडिसहस्साई, जीसे मन्ताण परिवारो॥ १०८ ॥ जम्बुद्दीवाहिवई, तइया जक्खो अणाढिओ नामं । जुवइसहस्सपरिवुडो, कीलणहेउं वणं पत्तो ॥ १०९ ॥ ताणं वरतरुणीणं, कीलन्तीणं सहावलीलाए । तवनिच्चलदेहाणं, दिट्ठी पत्ता कुमाराणं ॥ ११० ॥ गन्तण ताण पासं, भणन्ति वरकमलकोमलमुहीओ। तव-नियमसोसियाण वि पेच्छ हला!रूवलावणं ॥ १११ ॥ एए पढमवयत्था, सेयम्बरधारिणो कुमारवरा । किं कारणं महन्तं, चरन्ति घोरं तवोकम्मं ॥ ११२ ॥ उट्ट लह चिय गच्छह, गेहं किं सोसिएण देहेण ? । अम्हेहि समं भोगे. भुञ्जह पियदरिसणा तुब्भे ॥ ११३ ॥ मम्मण-महुरुल्लावं, एवं चिय ताण उल्लवन्तीणं । वयणं न भिन्दइ मणं, सत्थं व भडं ससन्नाहं ॥ ११४ ॥ देवीण मज्झयारे, दट ठूण अणाढिओ भणइ एवं । भो भो! तुम्हेत्थ ठिया, कयरं देवं विचिन्तेह ॥ ११५ ॥ सुङ वि मग्गिजन्ता, झाणोवगया न देन्ति उल्लावं । रुट्टो जक्खाहिवई, घोरुवसम्गं कुणइ तेसिं ॥ ११६ ॥ वेयाल-वाणमन्तर-गह-भूउन्भडकरालमुहदन्ता । भेसन्ति कुमारवरे, जक्खा विविहेहि रूवेहिं ॥ ११७ ॥ उम्मूलिऊण केई, पवयसिहरं सिलापरिग्गहियं । मुश्चन्ति ताण पुरओ, पप्फोडन्ता धरणिवटुं। ११८ ॥ केइत्थ दोहविसहर-रूवं काऊण अङ्गमङ्गेसु । वेढन्ति कुमारवरे, तह वि य खोभं न वच्चन्ति ॥ ११९ ॥ काऊण सीहरूवे, दढदाढामुहललन्तजीहाले । मुश्चन्ति सीहनायं, नक्खेहि महिं विलिहमाणा ॥ १२० ॥ जाहे न चाइया ते. खोभेऊणं च विविहरूवेहिं । ताहे बहलतमनिर्भ, मेच्छबलं दावियं सहसा ॥ १२१ ॥ अष्टाक्षरा विद्या सिद्ध हुई और सर्वकामा नामकी विद्या भी आधे दिनमें प्राप्त हुई । (१०७) जिसके मंत्रोंका परिवार दसकरोड़ हजार था अर्थात् इतने मंत्रोंका जप करके सोलह अक्षरोंमें निबद्ध षोडशाक्षरा विद्या भी उन्हें उस समय एक हजार युवतियोंसे घिरा हुआ अनाहत नामका जम्बूद्वीपका अधिपति यक्ष क्रीडा करनेके लिये उस वनमें आया। (१०९) स्वाभाविक लीलाके साथ क्रीड़ा करती हुई उन सुन्दर तरुणियोंकी दृष्टि तपसे निश्चल देहवाले उन कमारोंके ऊपर पड़ी। (११०) उनके पास जाकर उत्तम कमल के समान कोमल मुखवाली वे कहने लगी कि, अरे ! तप एवं नियमसे शोषित होने पर भी इनके रूप एवं लावण्य तो देखो। (१११) प्रथम वयमें स्थित अर्थात् बालक और श्वेत वस्त्रधारी ये कुमार किसलिए ऐसा घोर तप कर रहे हैं ? तुम उठो और जल्दी ही घर चले जाओ। शरीरको सुखानेसे क्या फायदा? सुन्दर तुमलोग हमारे साथ भोग भोगो । (११२-११३) जिस प्रकार कवच पहने हुए सुभटका शन भेद नहीं कर सकता उसी प्रकार कामवर्धक मधुर वाणी बोलनेवाली उन स्त्रियोंके वचन उन्हें तनिक भी भेद न सके अर्थात् उन्हें जरा भी विचलित न कर सके। (११४) देवियों के बीचमें रावण आदिको देखकर अनाहत कहने लगा कि अरे! तुम यहाँ खड़े-खड़े किस देवके बारेमें सोच रहे हो? (११५) बार-बार पूछने पर भी ध्यानमें लीन उन्होंने जब जवाब न दिया तब रुष्ट यक्षाधिपतिने उन पर घोर उपसर्ग किये । (११६) बेताल, व्यन्तर, ग्रह, भूत तथा भयंकर और विकराल मुँह और दाँतवाले यक्ष अनेक प्रकारके रूपोंसे उन कुमारोंको डराने लगे । (११७) उनमेंसे कई यक्ष शिलाओंसे व्याप्त पर्वतके शिखर उखाड़कर पृथ्वोतलको फोड़ रहे हों इस तरह उनके सम्मुख फेंकने लगे। (११८) कई यक्षोंने बड़े-बड़े विषधर सोका रूप धारण करके उन कुमारोंके प्रत्येक अंगको लपेट लिया, फिर भी वे सुब्ध न हुए। (११२) भयंकर डादवाले, मुँहमें लपलपाती हुई जोभवाले तथा नखोंसे जमीनको खोदते हुए सिंहोंका रूप धारण करके वे सिंहनाद करने लगे । (१२०) इस प्रकार विविध रूपोंसे क्षुब्ध करने पर भी जब वे उन्हें ध्यानसे च्युत न कर सके तब उन्होंने सहसा घनघोर अन्धकारके जैसे काले म्लेच्छोंकी सेना प्रदर्शित की। १. न गच्छंति-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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