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________________ ७८ पउमचरियं किं भूसणेहि कीरइ ?, रूवं चिय होइ भूसणं निययं । कित्ती लच्छी य गुणा, कुडुम्बसहिया ठिया जस्स ॥ एवं सबकलाऽऽगम-कुसलो रयणासवो वि चिन्तेन्तो । न लभइ खणं पि निद्दं, निययपुरीपविसणट्टाए ॥ परिचिन्तिऊण एवं निययं नाऊण विरियमाहप्पं । विज्जासु साहणईं, कुसुमुज्जाणे, समणुपत्तो ॥ ६५ ॥ गह-भूय-वाणमन्तर - पिसायबहुघोररूव सदाले । उज्जाणमज्झयारे, झाणुवओगं समारूढो ॥ ६६ ॥ नाऊण वोमबिन्दू, विजांसमुहागयं तमुज्जाणे । देइ पडिचारियं से, धूयं चिय केकसीना ॥ ६७ ॥ सा तत्थ तक्खणं चिय, कयविणया जोगिणं समल्लीणा । रक्खइ पसन्नहियया, समन्तओ दिनदिट्टीया ॥ ६८ ॥ अह सो समत्तविज्जो, काऊण थुई तओ जिणिन्दाणं । पेच्छइ य समब्भासे, विज्जाहरबालियं एक्कं ॥ ६९ ॥ वरपउमषत्तनेत्ता, पउममुही पउमगब्भसमगोरी । पउमद्दहवत्थबा, किं होज्ज सिरी सयं चेव ? ॥ रयणासवेण कन्ना, भणिया केणेत्थ कारणेण तुमं । अच्छसि वरलायण्णे ! हरिणी विव जूहप भट्टा ? आयासबिन्दुतणया, नन्दवईगब्भसंभवा कन्ना । नामेण केकसी हं, जणएण निरूविया तुज्झं ॥ रयणासवस्स सिद्धा, अह माणससुन्दरी महाविज्जा । दरिसेइ तक्खणं चिय, रूवं बल - विरिय - माहप्पं ॥ विज्जाबलेण सहसा, तत्थैव निवेसियं महानयरं । वरभवणसेग्राइण्णं, दिवं कुसुमन्तयं नामं ॥ ७४ ॥ पाणिग्गहणविहाणं, विहिणा काऊण तोऍ कन्नाए । भुञ्जइ निरन्तराए, भोगे बहुमाणसवियप्पो || ७५ ॥ सा अन्नया कयाई, सयणिज्जे महरिहे सुहपमुत्ता । पेच्छइ पसत्थसुमिणे, पडिबुद्धा मङ्गलरवेणं ॥ ७६ ॥ ईसुग्गयम्मि सूरे, सबालङ्कारभूसियसरीरा । गन्तूण समब्भासं, पइणो सुमिणे परिकहेइ ॥ ७७ ॥ ७० ॥ ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ ७१ ॥ ७२ ॥ ७३ ॥ सदा अधिक उद्यमशील रहता था। जिसका रूप ही अपना भूषण हो तथा कुटुम्बके साथ कीर्ति, लक्ष्मी एवं गुण जिसमें विद्यमान हों उसे आभूषणोंसे क्या प्रयोजन ? इस प्रकार सम्पूर्ण कलाओं और शास्त्रों में निपुण रत्नश्रवा अपनी नगरीमें प्रवेश पानेके लिए सोचता हुआ क्षण भर भी नींद नहीं लेता था । ( ६०-६४ ) ऐसा सोचकर तथा अपनी शक्ति एवं महत्त्वको जानकर विद्याओंकी साधना के लिये वह कुसुमोद्यानमें आ पहुँचा । (६५) ग्रह, भूत, व्यन्तर एवं पिशाचोंके अत्यन्त भयङ्कर रूप एवं शब्दसे व्याप्त उस उद्यानके बीच वह ध्यानोपयोगमें लीन हुआ । ( ६६) उसे भाया जानकर व्योमबिन्दु विद्याधरों के समूह के साथ उस उद्यानमें आया और उसकी परिचर्या करके केकसी नामकी अपनी लड़की उसे दी । (६७) विनयशील तथा प्रसन्नहृदया वह उसी क्षणसे चारों ओर दृष्टि रखकर योगीकी रक्षा करने लगी । ( ६८ ) Jain Education International [ ७.६३ विद्या प्राप्त करनेके पश्चात् जिनेन्द्रोंकी स्तुति करके जैसे ही वह देखता है वैसे अपने पास उसने विद्याधरकी एक बालिका देखी । (६९) उत्तम कमलके समान नेत्रवाली, कमलके समान मुखवाली, कमलके गर्भके समान गौरवर्णवाली यह क्या पद्मसरोवर में रहनेवाली स्वयं लक्ष्मी देवी है - ऐसा वह सोचने लगा । ( ७० ) ऐसा सोचकर रत्नश्रवाने उस कन्या से पूछा कि हे सुन्दर लावण्यवाली ! अपने गिरोह से अलग पड़ी हुई हिरनी जैसी तुम यहाँ पर क्यों आई हो ? ( ७१ ) इसके उत्तर में उसने कहा कि मैं नन्दवती के गर्भ से उत्पन्न और आकाशबिन्दु ( व्योमबिन्दु) की केकसी नामकी पुत्री हूँ । पिताने मुझे आपको दिया है। ( ७२ ) रत्नश्रवाके द्वारा सिद्ध की गई मानससुन्दरी नामकी महाविद्याने तत्क्षण ही अपना रूप बल, वीर्य एवं माहात्म्य दिखलाया । (७३) विद्याके प्रभावसे उसने वहीं पर उत्तम भवनोंसे व्याप्त एक कुसुमान्तक नामका दिव्य महानगर स्थापित किया । (७४) विधिपूर्वक उस कन्या के साथ विवाह करके मनोवांछित अनेक भोगोंका यह निरन्तर उपभोग करने लगा । (७५) For Private & Personal Use Only अत्यन्त मूलवान शैयाके ऊपर सुख पूर्वक सोई हुई उसने एक दिन उत्तम स्वप्न देखे। सुबह होने पर वह मंगल वाद्योंकी ध्वनि सुनकर जगी । ( ७६ ) सूर्यके थोड़ा चढ़ने पर सर्व प्रकारके अलंकारोंसे विभूषित शरीरवाली वह अपने पति के पास जाकर स्वप्नोंके बारेमें कहने लगी कि दृढ़ एवं मजबूत शरीरवाला तथा गरदन परके बालोंके कारण कुछ कुछ अरुणके १. बिज्जासमहागयं तरुज्जाणे - प्रत्य० । २. समाइणं - प्रत्य• । www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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