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________________ ७. ६२ ] ७. दहमुहविज्जासाहणं जं जस्स हवइ नामं, पुरस्स तेणेव तस्स अणुसरिसा । विज्जाहरा निउत्ता, पुहइयले खायकित्तीया ॥ ४८ ॥ नयरम्मि असुरनामे, असुरा खाईं गया तिहुयणम्मि । जक्खपुरम्मि य जक्खा, किन्नरगीए य संरिनामा ॥ ४९ ॥ गन्धबपुर निवासी, गन्धवा होन्ति नाम विक्खाया । तह असिणा असिणपुरे, वइसा वइसाणरपुरम्मि ॥ ५० ॥ अने वि एवमाई, विणिओगा सकसंभवा रहया । कुबन्ति तियसलीलं विज्जाबल गबिया वीरा ॥ ५१ ॥ एयारिसं महन्तं भुञ्जइ रज्जं महागुणसमिद्धं । अगणियपडिवक्खभओ, विज्जाहरसेढिसामित्तं ॥ ५२ ॥ धणयस्स समुत्पत्ती, सेणिय ! रन्नो सुणाहि एगमणो । अस्थि ति वोमबिन्दू, नन्दवई सुन्दरी तस्स ॥ ५३ ॥ तीए गब्भुप्पन्नाउ दोण्णि कन्नाउ रूववन्ताओ। कोसिय- केकसियाओ, अह कोउयमङ्गले नयरे ॥ ५४ ॥ जेट्टा य तेहि दिन्ना, नक्खपुरे वीससेणरायस्स । वेसमणोति कुमारो, तीऍ सुओ सुन्दरो नाओ ॥ सद्दाविओ य तुरियं, वेसमणो सुरवईण से दिन्ना । लङ्का भणिओ सि तुमं, भुञ्जसु सुइरं सुवीसत्थो ॥ अज्जभिई ठविओ, पञ्चमओ लोगपालिणो तुहयं । सबारिभग्गपसरं, भुञ्जसु निकण्टयं रज्जं ॥ ५७ ॥ मऊ तस्स चणे, वेसमणो पत्थिओ बलसमग्गो । लङ्कापुरिं पविट्टो, नयरनणुग्घुट्टजयसदो ॥ ५८ ॥ पायालंकारपुरे, पीइमई गव्भसंभवा नाया । धीरा सुमालिपुत्ता, तिण्णि वि रयणासवादीया ॥ ५९ ॥ रूवेण अणङ्गसमो, तेएण दिवायरो व पच्चक्खो । चन्दो व सोमयाए, लवणसमुद्दो व गम्भीरो ॥ ६० ॥ भिचाण बन्धवाण य, उवयारपरो तहेव साहूणं । देवगुरुपूयणपरो, धम्मुवगरणेसु साहीणो ॥ ६१ ॥ पर महिला जणणिसमा, मन्नइ धीरो तणं व परदवं । लोगस्स निययकालं, अहियं परिवालणुज्जुतो ॥ ६२ ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ जो नाम था वही उसके नगरका नाम पड़ा और उसीके अनुसार पृथ्वी तलपर जिनका यश ख्यात है ऐसे विद्याधरोंकी नियुक्ति की गई । (४८) असुरनामके नगर में रहनेवाले असुर, यक्षपुर में रहनेवाले यक्ष तथा किन्नरगीत नगरीके सदृश नामवाले किन्नर तीनों लोकों में ख्यात हुए । (४९) गन्धर्वपुर के निवासी गन्धर्वके नामसे, अश्विनीपुर के निवासी अश्विनीके -नामसे और वैश्वानरपुरके निवासी वैश्वानरके नामसे विख्यात हुए। (५०) इस प्रकार इन्द्रने दूसरे भी विभागोंका निर्माण किया। वहाँ विद्या एवं बलसे गर्विष्ठ वीर पुरुष देवताओंका सा आनन्द करते थे । ( ५१ ) विद्याधर श्रेणी (वैताढ्य पर्वत) का स्वामित्व पाकर महान् गुणोंसे समृद्ध बड़े भारी इस राज्यका शत्रुओंके भयकी परवाह न करके इन्द्र उपभोग करने लगा । (५२) रत्नश्रवाका वृत्तान्त : 198 हे श्रेणिक ! तुम एक चित्त होकर अब धनदको उत्पत्ति के बारे में सुनो। व्योमबिन्दु तथा उसकी सुन्दर भार्या नन्दवती थी । ( ५३ ) कौतुकमंगल नामक नगर में कौशिकी तथा केकसी नामकी दो कन्याएँ उसके गर्भ से उत्पन्न हुई । ( ५४ ) उन्होंने उसका विवाह यक्षपुरके विश्वसेन राजाके साथ किया। उससे वैश्रमणकुमार नामका सुन्दर पुत्र हुआ । (५५) सुरपति इन्द्र वैश्रमणको शीघ्र ही बुला भेजा और लंकानगरी प्रदान करके कहा कि तुम निःशंक होकर सुचिर काल तक इसका उपभोग करो । ( ५६ ) आजसे मैंने तुम्हें पाँचवें लोकपालके पद पर स्थापित किया है। सभी शत्रुओंका नाश हो जानेसे चारों ओर फैले हुए निष्कण्टक राज्यका तुम उपभोग करो । ( ५७) उस ( इन्द्र ) के चरणोंमें नमन करके वैश्रमणने सेनाके साथ प्रस्थान किया और लंकानगरीमें प्रवेश किया। उस समय नगरजनोंने 'जय जय' शब्दको उद्घोषणा की। (५८) पातालालंकारपुर में सुमालीकी पत्नी प्रीतिमतीके गर्भ से उत्पन्न रत्नश्रवा आदि तीन धीर पुत्र थे । (५९) वह ( रत्नश्रवा ) रूप में कामदेव के समान, तेजमें प्रत्यक्ष सूर्यके समान, सौम्यता में चन्द्रके समान और लवण समुद्रके समान गम्भीर था । नौकर-चाकर, बन्धुजन तथा साधुओंके उपकार करनेवाला, देव एवं गुरुकी पूजा करनेमें तत्पर तथा धर्मोपकरणोंमें वह स्वायत्त था । दूसरेकी स्त्री उसे माताके तुल्य थी । उस धीरके लिए परद्रव्य तिनकेके समान था । वह लोगों की रक्षा में १. सदृशनामानः । २. धीरा - प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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