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________________ .९२ ] ७. ७. दहमुहविज्जासाहणं ८१ ॥ ८२ ॥ ८३ ॥ ८४ ॥ उयरम्मि समल्लीणो, सीहो दढ - कढिणकेसरारुणिओ । अन्ने वि चन्द-सूरा, उच्छङ्गे धारिया नवरं ॥ ७८ ॥ एए दट्ठूण पहू, पडिबुद्धा तूरमङ्गलरवेणं । इच्छामि जाणिउं जे एयत्थं मे परिकहेहि ॥ ७९ ॥ अट्टङ्गनिमित्तधरो, सुमिणे नेमित्तिओ परिकहेइ । एए सबब्भुदया, सुयाण लम्भं परिकहेन्ति ॥ ८० ॥ होहिन्ति तिणि पुत्ता, विक्कम - माहप्प-सत्तिसंजुत्ता । अमरिन्दरूवसरिसा, पडिसत्तुखयंकरा वीरा ॥ जो तुज्झ पढमपुत्तो, होही भद्दे ! विसालकीत्तीओ । चक्कहरसरिसविभवो, सुचरियकम्माणुभावेण ॥ पडिवक्ख अगणियभओ, निचं रणकेलिकलहतल्लिच्छो । वरकूरकम्मकारी, होही नत्थेत्थ संदेहो ॥ जे पुण तस्स कणिट्ठा, दोण्णि नणा सुचरियाणुभावेणं । ते परमसम्मदिट्टी, भविया होहिन्ति निक्खुतं ॥ परितुट्ठा पसयच्छी, एवं सुणिऊण सुमिणपरमत्थं । निणचेइयाण पूयं, अणन्नसरिसं समारुहइ ॥ अह अन्नया कयाई, तीए गब्भस्स पढमउप्पत्ती । नत्तो पभूइ जाया, तत्तो चिय निट्टुरा वाणी ॥ अङ्गं से अइकढण, सूरं रणतत्तिनिब्भयं हिययं । दाउं सुराहिवस्स वि, इच्छइ आणासमारम्भं ॥ सन्ते विदप्पणयले निययच्छायं पलोयए खग्गे । विरइयकरञ्जलिउडा, नवरं गुरुभत्तिमन्ता य ॥ ८८ ॥ संपत्तडोहलाए, नाओ रिउआसणाइ कम्पन्तो । बन्धवहिययाणन्दो, अच्छेरयरूवसंठाणो ॥ ८९ ॥ भूहि दुन्दुहीओ, पहयाओ विविहतूरमीसाओ । पिउणा कओ महन्तो, विहिणा जम्मूसवो रम्मो ॥ ९० ॥ सूयाहरम्मितइया, सयणिज्जाओ महिम्मि पल्हत्थो । गेण्हइ करेण हारं, बालो पसरन्तकिरणोहं ॥ ९१ ॥ जो सो रक्खसवइणा, दिन्नो चिय मेहवाहणस्स पुरा । एयन्तरम्मि नंद्धो, न य केणइ खेयरिन्देणं ॥ ९२ ॥ ८५ ॥ I ८६ ॥ ८७ ॥ समान वर्णवाला सिंह उदर में प्रविष्ट हुआ और दूसरे दो सूर्य व चन्द्र मैंने अपनी गोद में धारण किये। हे प्रभो ! इन्हें देखकर मंगलवाद्योंकी ध्वनिसे जग गई ! मैं इन स्वप्नों के बारे में जानना चाहती हूँ, तो इनका अर्थ मुझे कहो । (७७-७९) अष्टांगज्योतिष जाननेवाले ज्योतिषीने कहा कि ये स्वप्न सब प्रकार के अभ्युदयोंसे युक्त पुत्रोंका लाभ होगा ऐसा सूचित करते हैं । (८०) विक्रम, माहात्म्य एवं शक्तिसे युक्त, देवताओंके इन्द्रके समान रूपवाले तथा विरोधी शत्रुका विनाश करनेवाले तीन वीर पुत्र होंगे | (८१) हे भद्रे ! तुम्हारा जो प्रथमपुत्र होगा वह पुण्यकर्मके फलस्वरूप विशाल कीर्तिवाला तथा चक्रवर्ती समान वैभववाला होगा। (८२) शत्रुओंके भयकी परवाह न करनेवाला, युद्धक्रोड़ा के कलहमें सदा लीन तथा उत्तम और क्रूर कर्म करनेवाला वह होगा- इसमें कोई सन्देह नहीं है । ( ८३ ) उसके जो दो छोटे भाई होंगे वे पुण्यके फलस्वरूप परम सम्यग्दृष्टि एवं भव्य होंगे, यह सुनिश्चित है । ( ८४ ) स्वप्नोंका ऐसा परमार्थ सुनकर प्रसन्न नेत्रोंवाली वह अत्यन्त सन्तुष्ट हुई | बादमें उसने जिनचैत्योंकी अभूतपूर्वपूजाका समारोह किया । (८५) रावण आदिका जन्म ७९ इसके अनन्तर जबसे उसके गर्भकी प्रथम उत्पत्ति हुई तबसे उसकी वाणी निष्ठुर हो गई, उसका अंग अत्यन्त कठोर हो गया, रणके विचारसे निर्भय एवं हौसलावाला उसका हृदय हो गया, देवताओंके स्वामी इन्द्रको भी आज्ञा देनेकी चाह उसे होने लगी, आईना होने पर भी तलवार में वह अपने मुखकी छाया देखती थी और हाथका अंजलिपुट बनाकर अर्थात् हाथ जोड़कर गुरुओंकी भक्ति करती थी । ( ८६-८८) सम्पूर्ण दोहदवाली उसने शत्रुओंके आसनोंको कम्पित करनेवाले, बन्धुजनों के हृदयको आनन्द देनेवाले तथा आश्चर्यजनक रूप एवं शरीररचनावाले पुत्रको जन्म दिया । (८९) भूतोंने विविध वाद्योंसे युक्त दुन्दुभियाँ बजाई पिताने सुन्दर और महान् जन्मोत्सव विधिपूर्वक मनाया । (९०) सूतिकागृह में पृथ्वी पर बिछौने बिछाये गये । उस बालकने किरणोंका समूह फैलानेवाला हार, जिसे राक्षसपतिने पूर्व कालमें मेघवाहनको दिया था उसे हाथसे पकड़ा। उस हारको अबतक किसी भी विद्याधर राजाने धारण नहीं किया था । ( ९१-९२ ) १. धीरा - प्रत्य० । २. निश्चितम् । ३. तब सूतिगृहे । ४. परिहितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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